एक कार्पोरेट उठा पटक का आंखो देखा हाल!
तो कार्पोरेट कडियाँ जमी थीं सालों के साथी अपने अपने स्थानों पर ठस के अडे थे, अपने व्यावसायिक ज्ञान, मनोभाव समझने की योग्यता और बहुमुखी गुणों के दम पर पाये हैं पद, उम्र के तीसरे पडाव में महंगी कारें, ऊंची तनख्वाहें, भत्ते, कार्पोरेट कार्ड, जिंदगियों के रुख बदल देने के अधिकार, क्या नही है इनके पास. एक के नीचे एक उलट वट-वृक्ष सी फ़ैली सत्ता, सत्ता के नक्शे पर उन्चे विराजमान ये, क्या कोई हिला सकता है इनकी गहरी जडें? नही! असंभव - अच्यूत हैं ये, बरगद जैसे अपनी मिट्टी में जमे हैं!
मगर कैसे हुई सनसनी, झनझनी और झुरझुरी एक के बाद एक ... जो तोडा ना जा सके, काटा ना जा, सके, हटाया ना जा सके उसको कैसे निपटाया जाता है एक केस-स्टडी प्रस्तुत है गुरु, अपन ने अपनी लाईफ़ में ऐसा अर्थपूर्ण शीर्षक नही लिखा- बरगद का बोंसाई!
बोन्साई (bonsai)- बडे-बडे वृक्षों को बौना कर के छोटे-छोटे गमलों मे उगा देने की जापानी कला!
शुरु हुए विभागीय फ़ेर-बदल, सूचना-तकनीक और क्रियाशील दल , दोनो के विभगाध्यक्षों की अदला-बदली और एक जबरदस्त पुनर्संरंचरण का प्ररंभ. कथित कारण - दोनो विभागाध्यक्ष अपने नए विभागों को नए दृष्टिकोण देंगे और पूर्वानुभव के आधार पर दूसरे विभाग के साथ बेहतर सामंजस्य बिठाएंगे, मगर इन सब का बाप जो सबसे ऊपर बैठा है उसके गणित वही जाने!
सो सूचना-तकनीक विभाग के पास एक नया विभागाधक्ष जिसने जीवन मे एक प्रोग्राम तक नही लिखा, इसका नाम काईंयाँ है, वो आते से ही करता है एक नई नियुक्ती - लाता है एक पुराना साथी, सूचना-तकनीक कि समझ, आया है जहां से पका है प्रबंधन कम और राजनीति के गुणों में अधिक. आसानी के लिए इसका नई नियुक्ति क नाम कलाकार रख देते हैं
खेल शुरु,
कलाकार ने आते ही माहौल सूंघा, तीन चार गुट हैं हर गुट की नेता एक आई टी मेनेजर, उन के पास अपने कर्मठ गार्ड-डोग कुत्तों का समूह, मगर इन मेनेजर्स में से एक के पास खास दल-बल, वफ़ादार टीम लीडर्स, प्रोग्रामर्स और कई नए मेमने नई टेक्नोलोजी के खेतों मे खेलते - काम की दादागिरि और खुशहाल! बस इस खास मेनेजर का बनाया जाना है बोन्सई - ये पुराने विभागाध्यक्ष की खास है, बुढा रही है मगर है विशेषज्ञ और इस के पद पर है कईयों कि निगाह! चलिए इस मेनेजर को बरगद बोलते है.
कलाकार की कुछ खास-खास चालें -
१. बरगद के नीचे वाले टीम-लीडर्स से अकेले मे संपर्क पता लगाना कि उनमे सबसे सशक्त कौन, उनको अधिकार और नए प्रोजेक्ट के ऐसे तकनीक के नए काम देना जिसका मेनेजर को ज्यादा ज्ञान नही. हां इसको आम भाषा में काम खींचना कहते हैं, उनको अब बरगद को नए कामों कि ज्यादा रिपोर्ट करने कि जरूरत नही - नए कामों का जिम्मा खुद लेना.
२. बरगद की एक शाखा - एक पूरा विभाग पुनर्संरंचण के नाम पर दूसरी मेनेजर को देना. दूसरे विभागों में फ़ेरबदल, बरगद से प्रतिस्पर्धा करने वाली इस दूसरी मेनेजर से हाथ मिला कर उसके एक वफ़ादार को तरक्की दे कर अब उसके नीचे बरगद की दूसरी शाखा डाल दी गई और दो उप विभागों को मिला दिया गया.
३. बरगद को पुरानी तकनीक के एक नए बहुत बडे काम मे उलझाए रखना और तारीफ़ किए जाना. बरगद को अधिक बोनस और पुरुस्कार.
४. तीन-चार फ़ेर बदल और - नए काम शुरु करना, उनमे से एक को छोड कर बाकी में तरक्की दिखाना.
५. इस नए काम के लिए बरगद कि सहायता की आवश्यकता होगी बता कर बरगद के स्तर पर एक नई नियुक्ति और. बरगद को खास सलाहकार का नया प्रमोशन दे कर बस सिर्फ़ उसकी महत्वपूर्ण राय दिये जाने क जिम्मा! बाकी बरगद की टीम अब इस नई नियुक्ति को रिपोर्ट करेगी. नई नियुक्ति की सहायता प्रतिस्पर्धी मेनेजर करेगी और फ़िर उसके नीचे ही नई नियुक्ति काम करेगी. यह सब बरगद की देख रेख मे होगा.
और यूं बरगद का बोन्साई बन गया! इस काम मे कलाकार को तकरीबन १.५ साल लगे! अगर कंपनी का आकार बढ रहा हो तो पुराने बरगदों का बोंसाई बना दिया जाता है और नए जंगल उगा दिए जाते हैं फ़िर अगला दौर होता है, वनों की बेरोकटोक कटाई का, आउट सोर्सिंग का या कुछ और घातक जिस पर पुराने बरगदों का बस ना रहे. शुरुवात की जाती है ऊपरी फ़ेरबदल से जिसमें कमाते हैं सभी और बली चढते हैं मेमने. खेल की रफ़्तार होती है तेज़.
प्रबंधन के घाघों कि शातिर चालें, कर्पोरेट सेंधमारी के गुर; जो किसि भी किताब मे लिखे नही जाते किसी व्यावसायिक पाठ्यक्रम में पढाए नही जाते शायद सिर्फ़ कर के दिखाए जाते हैं, कई काण्ड देखे मगर इस वाले कि अदा भा गई, बहुत खूब! बरगद का दो दशक का करियर २ साल में पलट गया, इस से पहले ३ एक-आध दशक वाले तो सिरे से निपटा दिए गए - अपनी आंखों के सामने!
बेचारे निचले स्तर वाले, यहां पर अस्तित्व की रक्षा की जाती है अपने सींग तेज़ लम्बे और नुकीले रख कर, नए गुर याद हों और खुर मज़बूत -जमे रहना, भागना निकलना, हरियाली तलाश लेना और जुगाली पचा लेना. कब क्या कैसे क्यों! आम अमरीकी अपने जीवन मे २-३ करियर बदल लेता है, नौकरियों कि तो गिनती ही क्या!
3 comments:
ज़ुबान-ए-'मीर' समझे, और कलाम-ए-'मीरज़ा' समझे
मगर इनका लिखा? ये आप समझें, या ख़ुदा समझे!
भइया तीन बार पढ चुका हूँ, लेकिन हर बार ऊपर से निकल जाता है,
तनिक छायावाद से बाहर आकर, कुछ एक्सप्लेन किया जाय.
स्वामी जी,
लिखते रहिए, कुछ नया अंदाज पढ़ने को मिल रहा है। जीतू भैया सरल शब्दों मे दफ्तर राजनीति की बात हो रही है याफिर कहिए कार्पोरेट कुटिलता।
पंकज
अरे भाई,
मै तो बस स्वामी जी को छेड़ रहा था.
इसी बात पर एक चुटकुला याद आ गया.
कार्पोरेट एक बरगद के समान है, और उस पर बैठे एक्जीक्यूटिव बन्दरों की तरह. सबसे ऊपर बैठे बन्दर को नीचे वालों का मुस्कराता चेहरा ही नजर आता है. और सबसे नीचे वाले बन्दर को ऊपर वालो का लाल लाल पिछवाड़ा.....
हंसी ना आने पर चुटकुला वापसी की गारन्टी
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