Wednesday, January 12, 2005

पहला प्यार

अनुगूंज में पहले प्यार कि किस्साबयानी के हुनर देख कर ईर्ष्या सी हुई. वो तो नसीब कि जनता ने कविता वगैरह नही पेली! मेरे नसीब, आपके नहीं! क्योंकि पहले प्यार की बात आते ही हमार मालवी दिल कविता करने को चाहे सो अब झेलो. प्यार किसि भी व्यवस्था में अपना तन्त्र स्थापित कर लेता है इस्सी बात को कहने का प्रयत्न किया है गौर से मुलाहिजा फ़रमाईएगा -

इक गाँव की गोरी से प्रीत कर बैठे
उल्टी हम जीवन की हर रीत कर बैठे

लोटा ले के जंगल जाते थे अल-सुबह
इक झाडी में उसको देखा, दो ईंट पर बैठे

शर्माई वो घबराई ताम्र लोट लुढकाई
हम अपना लोटा दे के, बस पीठ कर बैठे

इक गाँव की गोरी से प्रीत कर बैठे
उल्टी हम जीवन की हर रीत कर बैठे

मिली लौटा लौटाने हिया लोटे लगाने
जम्माल-घोटा पी के हम नींद कर बैठे

खिली प्रेम कि फ़ुल्वारी सोन खाद डारी
एक ही झाडी में ज़रा दूर दूर बैठे.

इक गाँव की गोरी से प्रीत कर बैठे
उल्टी हम जीवन की हर रीत कर बैठे

Akshargram Anugunj

अब आगे की बात याद कर के गुस्सा आ गया है अत: कविता बन्द. गोरी के पिता ने घर मे ही ताम्र-लोट प्रयोग की उचित सुलभ-व्यवस्था का निर्माण करा प्रेम-प्रक्रिया मे अवरोध डाला और बाद मे उसी ठेकेदार से गोरी का विवाह तय कर दिया. हाल ही में पता चला की गोरी ने अपने जुडवां पुत्र-पुत्रि का घरेलू नाम फ़्लशी और टिश्यु रखा है.

जंगल, झाडी का स्थान, जम्माल-घोटे कि मात्रा, लोटे का आकार प्रकार जैसे व्यक्तिगत प्रश्नों के उत्तर नही दिए जायेंगे.

4 comments:

Jitendra Chaudhary said...

सुन्दर अति सुन्दर.....
नही नही भीषण अति भीषण
ये तो वही बात हुई
कि नये नये नेताजी ने प्रेस कान्फ्रेन्स बुलवाई,
और सामाजिक व्यवस्था पर लम्बा चौड़ा भाषण दे डाला, एक आध कविता भी सुनाई, लेकिन जब पत्रकारों ने सवाल पूछने शुरु किये तो नो कमेन्ट्स करके खिसक लिये.

विजय ठाकुर said...

झाड़ियों की मारी दो आत्मा बिचारी
सरकाय लो खटिया को बीट कर बैठे
स्वामी जी के सेवा में रहती अगर वो
लूटती मज़े कितने, घर में बैठे बैठे
पर हाय रे बिटिया के बापू तुम तो
स्वामी जी की लुटिया ही डुबाय बैठे!

eSwami said...

जब निराला कि वह तोडती पत्थर पढी थी तब सोचा था वह शौच को कैसे जाती होगी खुले मे? कवित्व पे वाह-वाह की थी तब सोचा था गरीबनी ने प्रेम कैसे किया होगा? अब सोच लो! क्या ज्यादा जरूरी है? प्रेम के भूत मे गोते लगाना या समाज कि सफाई, सम्मान और शौचालय! मैने जो देखा है वो खालिस है इसीलिये कुरूप है. अगर सुन्दर लिखने, पढवाने और सुचवाने कि ईच्छा है तो पहले सफाई करनी होगी, गन्दे घर को सजाया नही जा सकता. साफ नही कर सके इसी लिये भाग आए ना! अभी भी कुछ कर लो!! जब देश शौचालय बना हो तो प्रेम कहां करूँ? अब सुनी अनुगूँज??

हरिमोहन सिंह said...

गजब