Wednesday, March 09, 2005

अक्षरग्राम अनूगूँजः सातवाँ आयोजन - बचपन के मीत


तब हमारे साथ साथ शहर बडा हो रहा होगा, मगर शहर में हो रहे बदलवों के बारे में बिल्कुल अनभिज्ञ रहे हम! बचपन का जीवन अपने स्कूल और मुहल्ले तक ही सीमित था. मध्यमवर्ग - ये शब्द कई आर्थिक सामाजिक सीमितताओं का प्रतिनिधित्व करता है और उस समय के मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे एक अनोखी समझ से अपने संसाधनो मे से मनोरंजन के साधन खोज लेते थे. खेलों के उपकरण - एक की गेंद दूसरे की बैट और टूटे फ़ाटक के स्टंप बना कर क्रिकेट शुरु! गेंद गुमाने वाले को नई गेंद ला कर देनी होती थी! गुल्ली-डण्डे की गुल्ली पर भी यही नियम लागू था. पतंगबाज़ी, कंचे-गोटिया तो कभी सात फ़र्शी पत्थर जमा कर सितोलिया खेला जाता था! गली के दोस्तों के साथ मित्रता थी पर पक्का मित्र सहपाठी ही था! Akshargram Anugunj


यह मित्र और मैं पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक सहपाठी रहे और पक्के मित्र भी. बचपन के इस मित्र के पिता का तबादला हुआ और ये दूसरे शहर चला गया. पिछली बार दस साल पहले मिले थे - मित्रवत प्रेम बना हुआ था. आज जब पीछे मुड के देखता हूं तो लगता है मित्र से मित्रता थी मगर हमरी मित्रता में वो गहराई नही थी जो मैने कई औरों की मित्रता में देखी है - खासतौर पर जो बचपन के मित्र होते हैं उनकी मित्रता में जो फ़ौलाद होता है - अपने केस मे नादारद रहा. मित्रता चल रही थी क्योंकी कोई परिक्षा की घडी नही आई, अगर आती तो मित्रता निपट जाती. उस के व्यक्तित्व में मेरे लिए मरने मारने पर उतारू हो जाए इतना तसीर नही था - हां मेरे मे था. अब ये किस्मत की बात होती है.

दोनो मित्रों ने साथ बहुत मस्तियां कीं - एक याद आ रही है -

हम तब सातवीं कक्षा में थे, रोज सुबह प्रार्थना होती थी. रामभरोसे हाईस्कूल में आठवीं तक डेस्क-दरी पे बिठाने का रिवाज था. तो प्रर्थना पूरी होते ही पैरों को आराम देने के लिए सब पहलू बदलते. कक्षा में एक सहपाठिनी पहलू घुटनें जरा उपर को कर के बदलती थी - ये रहस्य अपने राम खोज चुके थे - अब उस क्षणमात्र में स्कर्ट उपर होती, सहपाठिनी के लज्जा-वस्त्र के दर्शन हो जाते थे. रहस्य मित्र को बताया गया कुछ ही दिनों में मित्र और मैं प्रार्थना शुरु होने से पहले लज्जावस्त्र का रंग "गेस्स" कर के शर्त लगा चुकते थे. प्रार्थना पूरी होने का बेसब्री से इंतजार होता - बस्स प्रार्थना पूरी होते ही दोनो बडी स्टाईल से मुण्डी घुमाते - किसि को पता ना चले और लज्जावस्त्र के दर्शन पा लेते - सही!!

जो जीतता, यानी जिसका गेस्स किये हुए रंग का ही लज्जावस्त्र उस दिन पहना गया होता वो खिल जाता! दोनो में से जो हारता वो स्कूल खत्म होने पर दूसरे को समोसा खिलाता. अब अगर दोनो ही गलत निकल जाएं तो फ़िर अपने अपने पैसे की खाते. अब दोनो की रफ़ कापी के पीछे रोज पिछले दिनों पहने गए रंगो की लिस्ट होती थी - तो बाकायदा जैसे सटोरिए या लाटरीबाज कल खुलने वाले फ़िगर का कयास पिछले अंक देख कर लगाते हैं सो हम भी कुछ वैसा ही करते - "कल लज्जावस्त्र लाल था उस के एक दिन पहले भी लाल था, आज नहा कर आई है परसों काला था तो आज फ़ूलों वाली सफ़ेद पहनी होगी." और वहीं मित्र लाजिक भिडा रहा है "पिछले तीन गुरुवार से एक ही रंग - भई काला रीपीट होगा"

बडा होने के बाद जब जब प्रोबेबिलिटी, एक्स्ट्रापोलेशन और फ़ोरकास्टिंग विधियों के बारे मे कुछ भी पढा - सातवीं का किस्सा याद आया.

1 comment:

अनूप शुक्ल said...

विवरण मजेदार है.पर स्वामीजी खत्म वहां किये जहां लग रहा था पता चले कि हां आगे क्या हुआ.