Friday, January 21, 2005

कतरन और खुरचन का छायावाद


यहां पर छायावाद शब्द के घुसाये जाने की कोई जरूरत नही थी परन्तु ऐसे शीर्षक लिखने से जनता में एक कौतुहल जाग सकता है और वो मुझे साहित्यिक अभिरुचियों वाला समझने की क्षणिक मगर अच्छी भूल भी कर सकते हैं.

छायावाद के बारे मे अगर पूछा जाये तो मैं महादेवी वर्मा का जिक्र कर के छूट सकता हूं, मगर उदाहरण मत पूछियो - उस पे गूगल नही मारी.

"छायावाद" इस शब्द का अर्थ नही पता, बचपन मे हमारे घर आने वाली पत्रिकाओं में घिसियारे अपने सत्य-घिसियारे होने के सबूत देने के लिए शीर्षक मे इस शब्द का प्रयोग खुल कर करते थे - कमीने साले, बहुत खुन्नस आती थी ऐसी हरकतों पे. इस का छायावाद, उस का छायावाद - अबे क्या? सीधे फ़ूट ना जो कहना है!!

बचपन कि खुन्नस निकाल रहा हूं, वैसे मैने अपने गाढे पसीने की कमाई कभी देवनागरी मे छपे कचरे पर व्यर्थ नही की सो हमें "वर्ना-कूलर" वाली गाली से ना नवाजा जाए - हमरा कूलत्व बहुत मेहनत से कमाया गया है.

खुरचन - बचपन की बात पे क्या दिन याद आ रहे हैं, अ-साहित्यिक जनता गुलशन नन्दा के उपन्यास पढती थी, और जेम्स हेडली चेइज़ कि सनन सनसनी भी. चन्दामामा और अमर चित्र कथा से ज्यादा हमें ईन्द्र-जाल के फ़ेन्टम और मेन्ड्रेक प्यारे थे. हम हिन्दी वाली लाते कानवेन्टी पडोसी अन्ग्रेज़ी वाली फ़िर अदला-बदली होती वो दोनो मजे ले के पढता और हम अन्ग्रेज़ी वाली कामिक्स पढ लेने का ढोन्ग कर के अपनी इज्जत बचाते. धर्मयुग कितने प्यार से निपट गई पता भी नही चला कब निपटी - ज्ञानीजन प्रकाश डालें!

बाद मे पता लगा की लाईब्रेरी नुक्कड कि वो किराए से किताब देने वाली गुमटी नही होती - बाकायदा सीमेंट-कंकरीट की ईमारत होती है. राम-भरोसे हाईस्कूल मे लाईब्रेरी नामक कोई खोली नही थी.

आजकल का पता नही छायावाद जिन्दा है कि मर गया कोई ज्ञानी जानता हो तो टिप्पणीं मे पंडिताई निचोड दे.

दिमाग मे कच्चे, अधपके, अधूरे विचार मुरझाते रहते हैं, पल्ले नही पडते किन शब्दों मे लिखो - आलसी जनता ने मेहनत से बचने के लिए छायावाद गढा होगा, मेरा मतलब महादेवीजी के अलावा, अपन चेम्पियन लोगों से नही अडते, जब पढते नही तो अडेंगे कैसे!

सो बडे लोगों का भला हो आज हम भी छायावाद के मूड मे हैं, तो बतायेंगे नही कि किस बारे मे लिख रहे हैं मगर लिखेंगे. छायावाद लिखना पढे जाने के आत्म-विश्वास का सबूत है - बडे लोग ही ऐसी रिस्क लेते थे, अचानक कुछ अनबूझ सा पेल दो फ़िर देखे जनता पागल बन रही है. हमको भी अपनी औकात परखनी है, हम भी छायावाद लिखूंगा - अब धुन लो सिर और कौतुहल के मारे अगला पेरा पढो!


कतरन - ये मेरी लेखन शैली पर टी वी का प्रभाव है एक ही साथ अलग अलग डब्बों मे बिल्कुल असंबंधित चीज़ें लिख दो और दनादन एक के बाद एक दिखाओ, बीच-बीच मे जो बात थोडी देर पहले बोली जा चुकी है वो दोहराओ, तिहराओ, ये खबरों का छायावाद अपकी सुविधा के लिए है ताकी आपको चेनल ना बदलना पडे, मतलब किसि और के ब्लाग पे जाने का अनुभव इधर ही, भाड मे गई आर एस एस फ़ीड - मैं हूं ना! आगे बढें?


यार तू केना क्या चा रियाए?

कुछ नही! मगर छायावाद इसी को कहते हैं कि कहो मत मगर सुनने वाले को वो सुन लेने का अनुभव हो जो नही कहा- ये २ दिन के कब्ज के बाद जोर दे कर निकाली गई हवा का गंध है - जो नही किया वो भी हो गया जैसा लगे. ३-४ दिन से अपनी लेखनी को भी कब्ज भया है, और ऐसी परिस्थिती मे जो भी छायावाद निकला वो प्रस्तुत है.

3 comments:

शैल said...

छायावादी कवियों में सुमित्रानंदन पंत का नाम भी लिया जाता है ऐसा सुना है.अब ये नहीं पता कि उनकी कौन सी कविताएँ इस श्रेणी में आती है.

Kalicharan said...

are bhai achhe khaase chitte ke aant main badboo machaane ki kya jaroorat thi

आशीष said...

भाई साहब, कायम चूर्ण शायद आपकी समस्या का समाधान हो ।
वैसे ब्लाग आपका है, जो चाहे और जितना चाहे कर सकते हैं ।।