Saturday, January 29, 2005

भोंगा पुराण - (एक)


स्पीकर्स को हिन्दी मे क्या बोलते हैं पता नही पर एक खास किस्म के लम्बे स्पीकर को हमारे गांव मे भोंगा बोला जाता है - खोपडी मे किसि और शब्द कि आम अनुपलब्धि होने से भोंगा से ही फ़िलहाल काम चलते हैं.

भोंगा या स्पीकर बडे काम की चीज है - ध्वनी उत्पन्न करने का वैद्युत उपकरण, अमेरिका मे बसे अधिकतर देसी अपने संगीतप्रेम का सबूत महंगे भोंगे खरीद कर देते हैं. गाने या बजाने का शौक एच १ धारी में कम ही पाया जाता है सो अपने उम्दा श्रोता होने कि छटपटाहट मे आम तौर पर देसी बोस कंपनी के स्पीकर्स पर वारी-बलिहारी होते देखे जाते है. उनकी टांग खिचाई ईत्मिनान से बाद मे कभी.


आम देसी जो दुनिया मे कहीं भी रहता हो उसके लिए भोंगा बस एक तरह का होता है - अलग अलग आकार का मगर एक तरह का.

आप किसि देसि से पूछो भोंगे कितने प्रकार के - बोलेगा वूफ़र, होर्न, ट्वीटर और मिड-रेंज. देसी का दोष नही है. डायनामिक स्पीकर ८०%-९०% मारकेट पे और हिन्दुस्तान की १००% मारकेट पे राज करते हैं!

डायनामिक स्पीकर्स मे आगे होता है एक कोन और पीछे होता है एक बडा चुम्बक, और एक क्वाईल. सुधी-जिज्ञासुओं को उनकी कार्य-प्रणाली पता ही है.


दो और जबर्दस्त किस्में हैं स्पीकर्स की - इलेक्ट्रोस्टेटिक स्पीकर्स और प्लेनर स्पीकर्स. इन मे भोंगा या शंकु नही होता! मगर इनमे ध्वनी आगे और पीछे दोनो तरफ़ से एक सी निकलती है! हां जनाब यह तो बस एक खासियत है. भाग दो में और लिखुन्गा उन पर!

इलेक्ट्रोस्टेटिक स्पीकर्स - एक महीन पर्दा जो आगे-पीछे हिल कर ध्वनी उत्पन्न करता है. ये पर्दा चुम्बकीय पदार्थ का बना होता है जो अपने ही आकार के विद्युतीय क्षेत्र में रखा जाता है. यह विद्युत क्षेत्र दो "स्टेटर्स" को इस झिल्ली जैसे महीन पर्दे के आगे और पीछे रख कर बनाया जाता है. पर्दा स्टेटर्स से समान दूरी पर बीच मे रखा जाता है. स्टेटर्स को बिजली के तारों से जोड कर बिजली प्रवाहित की जाती है.





स्पीकर को चलाने के लिए पर्दे पर इलेक्ट्रान का घना जमाव पावर सप्लाई का प्रयोग कर के किया जाता है. ध्वनि संकेत दोनो स्टेटर्स को भेजे जाते हैं, मगर एक खास तरीका होता है - दोनो स्टटर्स मे संकेत एक सा मगर १८० अंश पर उल्टा प्रवाहित किया जाता है. अतः जब एक स्टेटर मे संकेत क वोल्ट बढता है दूसरे मे घटता है तो बीच के पर्दे पर दोनो तरफ़ स्टेटर के चर्ज से उल्टे चार्ज जमा होते हैं इसका कुल जमा असर ये होता है की पर्दा एक साथ खीन्चा-धकेला जाता है. जब प्रवाह उलट होता है तो खीन्चाव का बल भी उलट दिशा मे जाता है. पर्दा हल्का और महीन होता है अतः उस्के हिलने से पास की हवा भी हिलती है और ध्वनी पैदा होती है.

प्लेनर स्पीकर - (स्वामी के चेहरे पर मुस्कान, आई लव यू जी, जिक्र उस परिवश का .., हाए ज़ालिम, आए हो मेरी जिंदगी मे तुम बहार बन के, वगैरह)

प्लनेर स्पीकर दिखने मे तो तकरीबन इलेक्ट्रोस्टटिक स्पीकर जैसे होते हैं मगर वो डायनामिक तरीके से काम नही करते अतः इनको अलग से बिजली दिये जाने की जरूरत नही होती. प्लेनर-चुम्बकीय मे विद्युत प्रवाह को धातु की रिबिन मे प्रवाहित करते है, इस रिबन के चारो और ताकतवर चुम्बक होते हैं - तो जमावट इलेक्ट्रोस्टेटिक स्पीकर से जरा उलट सी है. रिबन मे जब करंट प्रवाहित होता है तो आगे पीछे के चुम्बक उसे खीन्चते-धकेलते है क्योंकी दोनो तरफ़ अलग अलग चार्ज जमा हो जाता है रिबन पर. इस के कुल-जमा प्रभाव से ध्वनि उत्पन्न हो जाती है.

एक पांच फ़ुटिए की तस्वीर पेश है -


प्लेनर-मेग्नेटिक ड्राईवर मे कई फ़िट लम्बी रिबन लगाई जाती है और उच्च व मध्यम-रेंज की फ़्रीक्वेंसी को एक दम सही उत्पन्न करते हैं - जितनी कम फ़्रीक्वेन्सी की ध्वनी उत्पन्न करना होगी उतना ही रिबन का लम्बा रखना ज्यादा जरूरी होगा जिससे स्पीकर का आकार बडा रखना जरूरी होगा - इस लिए इन का वूफ़र जैसे प्रयोग के लिए उत्पन्न की गई फ़्रीक्वेन्सी के लिए कम प्रयोग होता है - शौकीनों के दूसरे कारगार उपाय होते हैं उनके बारे मे कभी जरूर लिखुंगा.

तो इतने बडे स्पीकर्स क्यों बनाए जाते है? क्या खास है इनके बारे मे और जो एक बार इनको सुन ले वो कभी कुछ और पसंद नही करता? कोई तो बात है! ढेर सारा पैसा और प्यार उंडेला जाता है इन पर, खास सेट अप मे सुना जाता है - क्यों?? अभी अगले अंक मे इन स्पीकर्स के बारे मे क्या-क्या लिखुंगा सोचा नही है - मगर भाग दो आयेगा जल्दी ही.

Monday, January 24, 2005

एक झकास हास्य प्रस्तुति


पाश्चत्य विश्व में भारतीय व्यावसायिक और तकनीकी क्षेत्रों मे मनोरंजन और माध्यम से अधिक सफ़ल रहे हैं. अनिवासी भारतीयों से दूसरी या तीसरी पीढी के निवासी मुख्यधारा में आसानी से उपस्थिती दर्ज करवा पाए हैं और अब पहले से ज्यादा आम स्विकृति भी पा रहे है. रसेल एक ऐसे ही भारतीय मूल के कलाकार हैं जो अपनी पृष्ठभूमी और शैली से हास्य उपजाने मे सफ़ल रहे हैं ...
४५ मिनिट का मसाला

Sunday, January 23, 2005

बरगद का बोंसाई

एक कार्पोरेट उठा पटक का आंखो देखा हाल!



तो कार्पोरेट कडियाँ जमी थीं सालों के साथी अपने अपने स्थानों पर ठस के अडे थे, अपने व्यावसायिक ज्ञान, मनोभाव समझने की योग्यता और बहुमुखी गुणों के दम पर पाये हैं पद, उम्र के तीसरे पडाव में महंगी कारें, ऊंची तनख्वाहें, भत्ते, कार्पोरेट कार्ड, जिंदगियों के रुख बदल देने के अधिकार, क्या नही है इनके पास. एक के नीचे एक उलट वट-वृक्ष सी फ़ैली सत्ता, सत्ता के नक्शे पर उन्चे विराजमान ये, क्या कोई हिला सकता है इनकी गहरी जडें? नही! असंभव - अच्यूत हैं ये, बरगद जैसे अपनी मिट्टी में जमे हैं!

मगर कैसे हुई सनसनी, झनझनी और झुरझुरी एक के बाद एक ... जो तोडा ना जा सके, काटा ना जा, सके, हटाया ना जा सके उसको कैसे निपटाया जाता है एक केस-स्टडी प्रस्तुत है गुरु, अपन ने अपनी लाईफ़ में ऐसा अर्थपूर्ण शीर्षक नही लिखा- बरगद का बोंसाई!

बोन्साई (bonsai)- बडे-बडे वृक्षों को बौना कर के छोटे-छोटे गमलों मे उगा देने की जापानी कला!

शुरु हुए विभागीय फ़ेर-बदल, सूचना-तकनीक और क्रियाशील दल , दोनो के विभगाध्यक्षों की अदला-बदली और एक जबरदस्त पुनर्संरंचरण का प्ररंभ. कथित कारण - दोनो विभागाध्यक्ष अपने नए विभागों को नए दृष्टिकोण देंगे और पूर्वानुभव के आधार पर दूसरे विभाग के साथ बेहतर सामंजस्य बिठाएंगे, मगर इन सब का बाप जो सबसे ऊपर बैठा है उसके गणित वही जाने!

सो सूचना-तकनीक विभाग के पास एक नया विभागाधक्ष जिसने जीवन मे एक प्रोग्राम तक नही लिखा, इसका नाम काईंयाँ है, वो आते से ही करता है एक नई नियुक्ती - लाता है एक पुराना साथी, सूचना-तकनीक कि समझ, आया है जहां से पका है प्रबंधन कम और राजनीति के गुणों में अधिक. आसानी के लिए इसका नई नियुक्ति क नाम कलाकार रख देते हैं

खेल शुरु,
कलाकार ने आते ही माहौल सूंघा, तीन चार गुट हैं हर गुट की नेता एक आई टी मेनेजर, उन के पास अपने कर्मठ गार्ड-डोग कुत्तों का समूह, मगर इन मेनेजर्स में से एक के पास खास दल-बल, वफ़ादार टीम लीडर्स, प्रोग्रामर्स और कई नए मेमने नई टेक्नोलोजी के खेतों मे खेलते - काम की दादागिरि और खुशहाल! बस इस खास मेनेजर का बनाया जाना है बोन्सई - ये पुराने विभागाध्यक्ष की खास है, बुढा रही है मगर है विशेषज्ञ और इस के पद पर है कईयों कि निगाह! चलिए इस मेनेजर को बरगद बोलते है.

कलाकार की कुछ खास-खास चालें -

१. बरगद के नीचे वाले टीम-लीडर्स से अकेले मे संपर्क पता लगाना कि उनमे सबसे सशक्त कौन, उनको अधिकार और नए प्रोजेक्ट के ऐसे तकनीक के नए काम देना जिसका मेनेजर को ज्यादा ज्ञान नही. हां इसको आम भाषा में काम खींचना कहते हैं, उनको अब बरगद को नए कामों कि ज्यादा रिपोर्ट करने कि जरूरत नही - नए कामों का जिम्मा खुद लेना.

२. बरगद की एक शाखा - एक पूरा विभाग पुनर्संरंचण के नाम पर दूसरी मेनेजर को देना. दूसरे विभागों में फ़ेरबदल, बरगद से प्रतिस्पर्धा करने वाली इस दूसरी मेनेजर से हाथ मिला कर उसके एक वफ़ादार को तरक्की दे कर अब उसके नीचे बरगद की दूसरी शाखा डाल दी गई और दो उप विभागों को मिला दिया गया.

३. बरगद को पुरानी तकनीक के एक नए बहुत बडे काम मे उलझाए रखना और तारीफ़ किए जाना. बरगद को अधिक बोनस और पुरुस्कार.

४. तीन-चार फ़ेर बदल और - नए काम शुरु करना, उनमे से एक को छोड कर बाकी में तरक्की दिखाना.

५. इस नए काम के लिए बरगद कि सहायता की आवश्यकता होगी बता कर बरगद के स्तर पर एक नई नियुक्ति और. बरगद को खास सलाहकार का नया प्रमोशन दे कर बस सिर्फ़ उसकी महत्वपूर्ण राय दिये जाने क जिम्मा! बाकी बरगद की टीम अब इस नई नियुक्ति को रिपोर्ट करेगी. नई नियुक्ति की सहायता प्रतिस्पर्धी मेनेजर करेगी और फ़िर उसके नीचे ही नई नियुक्ति काम करेगी. यह सब बरगद की देख रेख मे होगा.

और यूं बरगद का बोन्साई बन गया! इस काम मे कलाकार को तकरीबन १.५ साल लगे! अगर कंपनी का आकार बढ रहा हो तो पुराने बरगदों का बोंसाई बना दिया जाता है और नए जंगल उगा दिए जाते हैं फ़िर अगला दौर होता है, वनों की बेरोकटोक कटाई का, आउट सोर्सिंग का या कुछ और घातक जिस पर पुराने बरगदों का बस ना रहे. शुरुवात की जाती है ऊपरी फ़ेरबदल से जिसमें कमाते हैं सभी और बली चढते हैं मेमने. खेल की रफ़्तार होती है तेज़.

प्रबंधन के घाघों कि शातिर चालें, कर्पोरेट सेंधमारी के गुर; जो किसि भी किताब मे लिखे नही जाते किसी व्यावसायिक पाठ्यक्रम में पढाए नही जाते शायद सिर्फ़ कर के दिखाए जाते हैं, कई काण्ड देखे मगर इस वाले कि अदा भा गई, बहुत खूब! बरगद का दो दशक का करियर २ साल में पलट गया, इस से पहले ३ एक-आध दशक वाले तो सिरे से निपटा दिए गए - अपनी आंखों के सामने!

बेचारे निचले स्तर वाले, यहां पर अस्तित्व की रक्षा की जाती है अपने सींग तेज़ लम्बे और नुकीले रख कर, नए गुर याद हों और खुर मज़बूत -जमे रहना, भागना निकलना, हरियाली तलाश लेना और जुगाली पचा लेना. कब क्या कैसे क्यों! आम अमरीकी अपने जीवन मे २-३ करियर बदल लेता है, नौकरियों कि तो गिनती ही क्या!

Friday, January 21, 2005

कतरन और खुरचन का छायावाद


यहां पर छायावाद शब्द के घुसाये जाने की कोई जरूरत नही थी परन्तु ऐसे शीर्षक लिखने से जनता में एक कौतुहल जाग सकता है और वो मुझे साहित्यिक अभिरुचियों वाला समझने की क्षणिक मगर अच्छी भूल भी कर सकते हैं.

छायावाद के बारे मे अगर पूछा जाये तो मैं महादेवी वर्मा का जिक्र कर के छूट सकता हूं, मगर उदाहरण मत पूछियो - उस पे गूगल नही मारी.

"छायावाद" इस शब्द का अर्थ नही पता, बचपन मे हमारे घर आने वाली पत्रिकाओं में घिसियारे अपने सत्य-घिसियारे होने के सबूत देने के लिए शीर्षक मे इस शब्द का प्रयोग खुल कर करते थे - कमीने साले, बहुत खुन्नस आती थी ऐसी हरकतों पे. इस का छायावाद, उस का छायावाद - अबे क्या? सीधे फ़ूट ना जो कहना है!!

बचपन कि खुन्नस निकाल रहा हूं, वैसे मैने अपने गाढे पसीने की कमाई कभी देवनागरी मे छपे कचरे पर व्यर्थ नही की सो हमें "वर्ना-कूलर" वाली गाली से ना नवाजा जाए - हमरा कूलत्व बहुत मेहनत से कमाया गया है.

खुरचन - बचपन की बात पे क्या दिन याद आ रहे हैं, अ-साहित्यिक जनता गुलशन नन्दा के उपन्यास पढती थी, और जेम्स हेडली चेइज़ कि सनन सनसनी भी. चन्दामामा और अमर चित्र कथा से ज्यादा हमें ईन्द्र-जाल के फ़ेन्टम और मेन्ड्रेक प्यारे थे. हम हिन्दी वाली लाते कानवेन्टी पडोसी अन्ग्रेज़ी वाली फ़िर अदला-बदली होती वो दोनो मजे ले के पढता और हम अन्ग्रेज़ी वाली कामिक्स पढ लेने का ढोन्ग कर के अपनी इज्जत बचाते. धर्मयुग कितने प्यार से निपट गई पता भी नही चला कब निपटी - ज्ञानीजन प्रकाश डालें!

बाद मे पता लगा की लाईब्रेरी नुक्कड कि वो किराए से किताब देने वाली गुमटी नही होती - बाकायदा सीमेंट-कंकरीट की ईमारत होती है. राम-भरोसे हाईस्कूल मे लाईब्रेरी नामक कोई खोली नही थी.

आजकल का पता नही छायावाद जिन्दा है कि मर गया कोई ज्ञानी जानता हो तो टिप्पणीं मे पंडिताई निचोड दे.

दिमाग मे कच्चे, अधपके, अधूरे विचार मुरझाते रहते हैं, पल्ले नही पडते किन शब्दों मे लिखो - आलसी जनता ने मेहनत से बचने के लिए छायावाद गढा होगा, मेरा मतलब महादेवीजी के अलावा, अपन चेम्पियन लोगों से नही अडते, जब पढते नही तो अडेंगे कैसे!

सो बडे लोगों का भला हो आज हम भी छायावाद के मूड मे हैं, तो बतायेंगे नही कि किस बारे मे लिख रहे हैं मगर लिखेंगे. छायावाद लिखना पढे जाने के आत्म-विश्वास का सबूत है - बडे लोग ही ऐसी रिस्क लेते थे, अचानक कुछ अनबूझ सा पेल दो फ़िर देखे जनता पागल बन रही है. हमको भी अपनी औकात परखनी है, हम भी छायावाद लिखूंगा - अब धुन लो सिर और कौतुहल के मारे अगला पेरा पढो!


कतरन - ये मेरी लेखन शैली पर टी वी का प्रभाव है एक ही साथ अलग अलग डब्बों मे बिल्कुल असंबंधित चीज़ें लिख दो और दनादन एक के बाद एक दिखाओ, बीच-बीच मे जो बात थोडी देर पहले बोली जा चुकी है वो दोहराओ, तिहराओ, ये खबरों का छायावाद अपकी सुविधा के लिए है ताकी आपको चेनल ना बदलना पडे, मतलब किसि और के ब्लाग पे जाने का अनुभव इधर ही, भाड मे गई आर एस एस फ़ीड - मैं हूं ना! आगे बढें?


यार तू केना क्या चा रियाए?

कुछ नही! मगर छायावाद इसी को कहते हैं कि कहो मत मगर सुनने वाले को वो सुन लेने का अनुभव हो जो नही कहा- ये २ दिन के कब्ज के बाद जोर दे कर निकाली गई हवा का गंध है - जो नही किया वो भी हो गया जैसा लगे. ३-४ दिन से अपनी लेखनी को भी कब्ज भया है, और ऐसी परिस्थिती मे जो भी छायावाद निकला वो प्रस्तुत है.

Friday, January 14, 2005

बुल्लेया की जाणां मैं कौण


(बुल्ला क्या जानूं मैं कौन?)

हाल ही में बाबा बुल्ले शाह कि ये काफ़ी फ़िर से सुर्खियों मे है, या यों बोलें की काफ़ी गा देने की वजह से एक नया कलाकार, रब्बि शेरगिल सुर्खियों मे है. मुझे तो वडोली बन्धु द्वारा गाया गया शास्त्रीय और आँचलिक या लोक संस्करण ज्यादा भाता है. दोनो कि कडियां, काफ़ी का टूटा-फ़ूटा हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है. अनुवाद मे गलती की संभावना है इस लिये पहले ही माफ़ी मांग लेता हूँ.

ना मैं मोमिन विच मसीत आँना
मैं विच कुफ़र दियां रीत आँ
ना मैं पाकां विच पलीत आँ
ना मैं मूसा न फरौन.

ना में मस्जिद में आस्था रखने वाला हूं
ना में ढोंगी कर्मकाण्डी हूं (अर्थ तान्त्रिक से भी लिया जा सकता है)
ना मैं शुद्ध ना अशुद्ध हूँ
ना मैं मूसा ना फ़रौन हूँ

बुल्ला की जाणां मैं कौण

ना मैं अन्दर वेद किताब आँ,
ना विच भन्गां न शराब आँ
ना विच रिन्दां मस्त खराब आँ
ना विच जागां ना विच सौण

ना मैं वेद ना कुरान पढने वाला
ना भांग ना शराब पीने वाला
ना मैं शराबीयों में मस्तवाला
ना जागों में ना सोने वाला

बुल्ला की जाणां मैं कौण

ना विच शादि ना गमनाकि
ना मैं विच पलीति पाकि
ना मैं आबि ना मैं खाकि
ना मैं आतिश ना मैं पौण

ना खुशों ना नाखुश हूँ
ना स्वच्छों में ना अस्वच्छ हूँ
ना पानी का ना मिट्टि का हूँ
ना अग्नि ना वायू से जन्मा हूँ

बुल्ला की जाणां मैं कौण

ना मैं अरबि ना लहोरि
ना मैं हिन्दि शेहर नगौरि
ना हिन्दु ना तुरक पेशावरि
ना मैण रेहन्दा विच नादौण

ना अरबी ना लहौरी
ना हिन्दिभाषी नगौरी
ना हिन्दू ना तुर्क पेशावरी
ना मेइं नादौन का वासी हूँ

बुल्ला! कि जाणा मैं कौण

ना मैं भेद मज़हब दा पाया
ना मैं आदम हव्वा जाया
ना मैं अपणा नाम धराया
ना विच बैट्ठण भौंण

ना मैं धर्म का भेद पाया
ना मैं आदम-हव्वा जाया
ना मैं अपना नाम रखवाया
ना मैं जड ना चलायमान हूं

बुल्ला की जाणां मैं कौण

आव्वल आखिर आप नु जाणां
ना कोइ दूजा होर पेहचाणां
मैंथों होर न कोइ सियाणा

स्वयं को आदी आन्त जाना
और दूजा ना कोई जाना
मुझसा सयाना कौन?

बुल्ला शाह खडा है कौण
बुल्ला शाह नामक कौन खडा है!

Thursday, January 13, 2005

दीवार में एक खिडकी रहती थी

(मेरी एक प्रिय किताब के बारे में)
वर्ष १९९९ में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त कृति

विनोदकुमार शुक्ल की प्रारंभिक कहानियों ने ही सचेत पाठकों को चौकन्ना कर दिया था और उसके बाद "नौकर की कमीज" ने पिछले कुछ वर्षों में आखिरकार अपना कालजयी दर्ज़ा स्विकार करवा ही लिया.

उपन्यास के केन्द्र में एक निम्न मध्यमवर्गीय, कस्बाई नवदम्पत्ति है. रघुवर प्रसाद कस्बे से लगे हुए महाविद्यालय में गणित के सव्यसाची व्याख्याता हैं, जिनके जीवन में कोई गणित नही है, और नवोढा सोनसी सिर्फ़ गिरस्ती सँभालती है. दोनो के पितृ-परिवार हैं, रघुवर का परिवार ज्यादा मौजूद है. महाविद्यालय जाने के दो विकल्प हैं - टेम्पो या सईकिल, लेकिन अपने हाथी के साथ एक साधू एक अनोखा, नियमित विकल्प पैदा कर देता है जो आदमी और आदमी, मानव और पशु के बीच एक अनिर्वचनीय रिश्ते में बदल जाता है. दीवार में जो खिडकी है उसे फ़ाँद कर सिर्फ़ रघुवर प्रसाद और सोनसी नदी, तालाब, चट्टान, तोतों, बंदरो, नीलकंठों, पेडों, पहाडियों के एक गीतात्मक, स्वप्न-जैसे संसार में प्रवेश कर सकते हैं जिसमें कपडे धोना, नहाना और सो जाना तथा प्रेम कर पाना भी संभव है, जिसमें एक चायवाली बुढिया है जो बेखबर निद्रामग्नों को उढाती भी है और सोनसी को कीमती कड़ै भी दे सकती है. लेकिन खिडकी के पीछे की ये दुनिया भले विभागाध्यक्ष को कभी दिखाई तक नही देती, प्राचार्य चपरासियों और चोरी गई साईकिलों में ही चिंतित हैं, जबकि रघुवर प्रसाद के माता-पिता और बहुत छोटे भाई के लिये अपने कस्बे से अपने मददगार कमाऊ बेटे-भाई के इस कस्बे तक की यात्राएँ और एकाध बार हाथी पर सवारी ही इस एक कमरे के सामने वाला संसार है.


विनोदकुमार शुक्ल के इस उपन्यास में कोई महान घटना, कोई विराट संघर्ष, कोई युग-सत्य, कोई उद्देश्य या संदेश नहीं है क्योंकि इसमें वह जीवन, जो इस देश की वह जिंदगी है जिसे किसि अन्य उपयुक्त शब्द के अभाव में निम्नमध्यमवर्ग कहा जाता है, इतने खलिस रूप में मौजूद है कि उन्हें किसि पिष्टकथा की ज़रूरत नही है. यहाँ खलनायाक नही हैं किन्तु मुख्य पात्रों के अस्तित्व की सादगी, उनकी निरीहता, उनके रहने आने-जाने, जीवन-यापन के वे विरल ब्यौरे हैं जिनसे अपने आप उस क्रूर प्रतिसंसार का अहसास हो जाता है जिसके कारण इस देश के बहुसंख्य लोगों का जीवन का जीवन वैसा है जैसा की है. विनोदकुमार शुक्ल इस जीवन में बहुत गहरे पैठकर दाम्पत्य, परिवार, आस-पडोस, काम की जगह, स्नेहिल गैर-संबंधियों के साथ रिश्तों के जरिए एक इतनी अदम्य आस्था स्थापित करते हैं कि उसके आगे सारे अनुपस्थित मानव-विरोधी ताकतें कुरूप ही नही, खोखली लगने लगती हैं. एक सुखदतम अचंभा यह है कि इस उपन्यास में अपने जल, चट्टान, पर्वत, वन, वृक्ष, पशुओं, पक्षियों, सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्र, हवा, रंग, गन्ध और ध्वनियों के साथ प्रकृति इतनी उपस्थित है जितनी फ़णीश्वरनाथ रेणू के गल्प के बाद कभी भी नही रही और जो ये समझते थे कि विनोदकुमार शुक्ल में मानव-स्नेहिलता कितनी भी हो, स्त्री-पुरुष प्रेम से वे परहेज करते हैं या क्योंकि ये उनके बूते के बाहर है, उनके लिये तो ये उपन्यास एक सदमा साबित होगा-प्रदर्शनवाद से बचते हुए इसमें उन्होंने ऐन्द्रिकता, माँसलता, रति और श्रिंगार के ऐसे चित्र दिए हैं जो बगैर उत्तेजक हुए आत्मा को इस आदिम संबंध के सौंदर्य से समृद्ध कर देरे हैं, और वे चस्पाँ किए हुए नही हैं बल्कि नितांत स्वाभाविक हैं - उनके बिना यह उपन्यास अधूरा, अविश्वसनीय, वंध्य होता.


भाषा पर तो विनोदकुमार शुक्ल का अपने ढंग का अघिकार है ही-प्रेमचंद और जैनेन्द्र के बाद इतनी सादा, रोज़मर्रा भाषा में शायद ही किसि और में अभिव्यक्ति की ऐसी क्षमता हो- लेकिन इस उपन्यास में उन्होंने संभाषण की कई भाषाएं और शैलियाँ ईजाद की हैं - एक वह है जिसमें रघुवर प्रसाद लोगों से बोलते हैं, दूसरी वह जिसमें वे खुद से बोलते हैं, तीसरी वह जिसमें रघुवर प्रसाद और सोनसी अपने एकांत मे बोलते हैं और चौथी वह है जिसमें रघुवर प्रसाद परिवार आपस में बात करता है, जिसमें हल्की-सी आँचलिकता मिली हुई है, और पाँचवी वह जिसमें विभागाध्यक्ष और प्राचार्य बोलते हैं- सबसे 'ठेठ' वही है. एक और अद्भुत भाषा वह है जिसमें बोलने वाला और सुननेवाला बारी-बारी कहते कुछ और हैं और सुनते कुछ और हैं और यह एक और ही अर्थबाहुल्य स्निग्घता को जन्म देता है.
यह उपन्यास मर्मस्पर्शिता और परिहास का निराला संतुलन है.

Wednesday, January 12, 2005

पहला प्यार

अनुगूंज में पहले प्यार कि किस्साबयानी के हुनर देख कर ईर्ष्या सी हुई. वो तो नसीब कि जनता ने कविता वगैरह नही पेली! मेरे नसीब, आपके नहीं! क्योंकि पहले प्यार की बात आते ही हमार मालवी दिल कविता करने को चाहे सो अब झेलो. प्यार किसि भी व्यवस्था में अपना तन्त्र स्थापित कर लेता है इस्सी बात को कहने का प्रयत्न किया है गौर से मुलाहिजा फ़रमाईएगा -

इक गाँव की गोरी से प्रीत कर बैठे
उल्टी हम जीवन की हर रीत कर बैठे

लोटा ले के जंगल जाते थे अल-सुबह
इक झाडी में उसको देखा, दो ईंट पर बैठे

शर्माई वो घबराई ताम्र लोट लुढकाई
हम अपना लोटा दे के, बस पीठ कर बैठे

इक गाँव की गोरी से प्रीत कर बैठे
उल्टी हम जीवन की हर रीत कर बैठे

मिली लौटा लौटाने हिया लोटे लगाने
जम्माल-घोटा पी के हम नींद कर बैठे

खिली प्रेम कि फ़ुल्वारी सोन खाद डारी
एक ही झाडी में ज़रा दूर दूर बैठे.

इक गाँव की गोरी से प्रीत कर बैठे
उल्टी हम जीवन की हर रीत कर बैठे

Akshargram Anugunj

अब आगे की बात याद कर के गुस्सा आ गया है अत: कविता बन्द. गोरी के पिता ने घर मे ही ताम्र-लोट प्रयोग की उचित सुलभ-व्यवस्था का निर्माण करा प्रेम-प्रक्रिया मे अवरोध डाला और बाद मे उसी ठेकेदार से गोरी का विवाह तय कर दिया. हाल ही में पता चला की गोरी ने अपने जुडवां पुत्र-पुत्रि का घरेलू नाम फ़्लशी और टिश्यु रखा है.

जंगल, झाडी का स्थान, जम्माल-घोटे कि मात्रा, लोटे का आकार प्रकार जैसे व्यक्तिगत प्रश्नों के उत्तर नही दिए जायेंगे.

Sunday, January 09, 2005

सनकाऊ वक्तव्य

१. गरीबी - पैसे के अन्त मे बचा हुआ माह का हिस्सा.
२. पागलपन तेरी दशा नही है, तेरी मौज है.
३. आज का दिन आपकी अब तक की जिंदगी का आखरी दिन है.
४. क्या भगवान आप में आस्था रखता है?
५. स्वर्गवासी होने तक यहां आपका स्वागत है.
६. शायद मैं इस ग्रह से उतर नही पाऊंगा.
७. जीवन एक यौन संक्रमित बिमारी है और ये १००% आपकी जान ले लेगी.
८. इस पागल संसार मे समझ का क्या काम?
९. कायदे औसत आदमी के लिए हैं - मै तो अव्यव्स्था को भी समझ सकता हूं.
१०. जीवन गूँ का भंरवा पराठा, जितनी ज्यादा आटा-दाल उतना कम गूँ.
११. जब भी कोई अच्छी किताब पढो, अपने शिक्षक को धन्यवाद कहो, अगर वो अपना फोन नम्बर बदल कर असूचित ना करा ले.
१२. इतिहास खुद को दोहराता है क्योंकि तुम एक बार मे सुनते नहीं हो.

Saturday, January 08, 2005

साँड विचार

साँड मेरा प्रिय पशु है, बचपन से मुझे साँड मे जो बात नज़र आती है किसि और पशु मे नहीं. घोडा सुन्दर है, साधा जा सकता है, साँड शाकाहारी है पर साधा नही जा सकता. साँड को बैल बनाने कि कोशिश की जा सकती है मगर बैल के अन्दर फिर भी थोडा सा साँड बचा रहता है - भरोसा ना हो तो बैल पाल के देख लो!

कृष्ण के रथ मे सात घोडे थे सात साँड नहीं. कृष्ण को गाय प्रिय थी वो गाय को घांस चराने ले के जाते थे. साँड बहुत ही आत्म-निर्भर होता होगा, खुद चर लेता होगा, या कभी-कभी मुझे ये साँड को पटाने कि कृष्ण कि सजिश लगती है. फिर कौन जाने कृष्ण और साँड मे मित्रता रही हो जंगल मे जा के कृष्ण गोपियों मे मस्त और साँड गैय्या में. फिर भी साँड के बजाए घोडे ही जोतने पडे, ये साँड होने की महिमा हो सकती है. कृष्ण ऐसी हरकतों की वजह से ही अपने समय मे बडे कूल थे!

शेयर मारकिट मे जब भूचाल आता है तब इसे साँडिया-बज़ार बोलते है. हिन्दि का शब्द अण्ड-सण्ड, साण्ड के साण्ड्त्व के सत्व की तरफ का इशारा है - समझ जाईये. जवानी में हमारी बाईक के पीछे 'अण्ड-सण्ड-प्रचण्ड' लाल रँग मे लिखवा कर बहुत फर्राये हम, शायद थोदा सँडियाये भी होंगे - याद नही, याद होगा तो भी लिखुंगा नहीं.

आज साँड पे लिखने कि क्यों सूझी? अभी सप्ताह भर की सब्जी खरीद के लौटा हूं और अन्तर्यामिणी से बोला, 'साँड को साधने कि एक ही विधि है - उसका ५ दिनि समरोह कर के परिणय कर दिया जाये ... काश ये बात कृष्ण को सूझी होती, तो महाभारत मे उनके सप्त-साँडिये रथ की धमाकेदार एन्ट्री पे ही युद्ध का पट-क्षेप हो जाता.' अन्तर्यामिणी बात का सन्दर्भ और प्रसंग खुद समझिं, जवाब ये मिला कि 'कृष्ण को युद्ध करवाना था और जीतना था, एक दिशा देनी थी. इसीलिये कृष्ण ने सधे हुए कर्मठ घोडों पे महाभारत मे एन्ट्री मारी. ठसियल दिशाहीन साँडों को उनकी चारागाहों में चरता छोड दिया, साँड होने का यह पुरुस्कार है या दण्ड, आप के मत पर निर्भर है'.

जवाब सुनते ही मैं विक्रम-और-बेताल के बेताल कि तरह उडा और अपने पी.सी. पे बैठ गया.

Wednesday, January 05, 2005

निवेदन...

कहते हैं आदमी का काम कभी पूरा नही होता. पर एक काम सिरे लगा. हिन्दी युनिकोड फोरम पे कैसे इस्तेमाल हो सकता है इस का जायजा लिया गया आगे जो हो सो हो - गेन्द अब पराये पाले मे है, जिसको जमे उपयोग करो!
हिंदी ब्लॅग वालो से निवेदन है - हिन्दी मे जवाब देने के इस टूल को ब्लॅग मे भी घुसेडने की प्रक्रिया पे विचार हो सके तो वाह - अपन इस गेम मे नये हैं मदद करो यार लोग - ये कट-पेस्ट कि झन्झट खतम हो!
परेशानियां तकनीकी नही हैं उत्साह की हैं. सब कुछ तुरत-फुरत चहिये ज़माने को और आलोकजी जैसे कर्णधार को तो आलोचनाऒ / प्रशंसाऒ को एक सा झेलने की आदत हो गई होगी! वाह रे ज़माने एक चर्चिले ने इन को भी नही बख्शा! नया क्या है दस्तूर!

HUG 3.1 Beta Online Forum Simulation View Released

http://www.echarcha.com/forum/showthread.php?threadid=18934 ready to test!

Monday, January 03, 2005

जन गण मन

तो साहब अन्य अनिवासी भारतीयों के साथ मनाया नया साल. हम भी भांगडे के अलावा पाश्चात्य धुनों पर थिरके. सुरा, सिगार, संगीत, सर-दर्द. बीच रात मे अपनी बारह बज गई और नया साल घोषित, उसके पहले उल्टी गिनती वगैरह.

समापन के समय एक पिए हुए को देश प्रेम जागा, बिना सावधान किए "जन गण मन" शुरु. अपन को राम भरोसे हाईस्कूल के हेड मास्साब की कसम, खटाक से सावधान कि गियर लगाई. पास खडी एक महिला ने ऐसे मूह बनाया मानो हमने अपनी ढुँगन खुजा दी हो, फ़िर सम्भल के जैसे तैसे मिले सुर मेरा तुम्हारा - दीदे घुमा के देखा दो हरित पत्र धारी धौल-धप्पा कर रहे है. एक कोने पे उसकी पत्नी/प्रेयसी के नितम्ब पर हाथ रखे 'जय जय जय जय है' अलापा. हमको आखिर में "भारत माता कि... जै" करनी थी ... नही हुई. अल्बत्ता तालियां बजाई गईं. सब सही है, चल्ता है!

उसके पहले शाम रंगारंग थी ... कजाने-केसे कसैली लगने लगी निगोडी, अपना मू सूमडे सरीका हो गया! अन्दर का मालवावासी अपने ईस्कूल का चक्कर लगा आया. चाए 'जन्गन्मन' होता था पर शब्द भोले दिल से निकलते थे सावधानी से.

हमने निःश्वास छोडी .. "नाच नाच कर थक गये यार!"