I find it funny - 'Tantrum' sounds like singular form of 'Tantra'. I mean - its funny, if you know what Tantra really is all about!
My English/Hindi blog is not about Tantra - Its about me, Baby! So deal with it! :)
दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानां किए हुए
गालिब के इस शेर के बारे में गुलजार नें सही कहा है, के शब्द तो गालिब के हैं पर भावार्थ हर एक का अपना अपना. खुद गुलजार नें एक गीत तो क्या एक पूरी फ़िल्म, मौसम, का मूड ही जैसे इन दो पंक्तियों के बीच जमा दिया हो! मुझे ये पंक्तियां जीवन पूराण के साण्ड-काण्ड की याद दिलाती हैं.
आज कार में ये गीत दूबारा-तिबारा बजता रहा, शहर का तापमान जरा ठीक हुआ, एक जानी-पहचानी गंध की हवा चली और मुझे अतीत में बहा ले गई.
गर्मियां शुरु होने से कुछ पहले, आम तौर पर फ़रवरी में, एक दिन हवा की तासीर और गंध बदली महसूस होती है. इस गंध से परिचित लोग, उम्र के किसि भी पडाव में समीर-संदेश पढ लेते हैं, और भयभीत हो जाते हैं. ये दिन समय का एक मोड होता था - परिक्षा का मौसम या चालू भाषा में "फ़ाडू-दिन" शुरु हो जाते थे - हम थोडे सहम जाया करते थे. इस दिन के बाद मौसम बदल कर फ़िर चाहे दोबारा ज़रा ठंडा हो ले, अगले २-४ दिन में हर रात अलग-अलग प्रकार के सपने आते हैं - गणित के पर्चा हल ना होवे और फ़ेल होने के डर के मारे थोडी सी मुत्ती निकलने से ले कर स्वप्न-स्लखन तक की पूरी रेंज के सपनें!
वहीं दूसरी ओर , इस फ़रवरी महीने से लगाव पुराना है, अपने शहर में इस महीने का मौसम बडा ही सेक्सी लगता था. ये मौसम पारस्परिक सहमति से शीलग्रहण करने के लिए सबसे उपयुक्त होता है ऐसी मेरी व्यक्तिगत मान्यता है. तो इस महीने में हमारा तन-मन दोनो अपनी-अपनी वजह से तनावग्रस्त रहते थे. दिल घबराहट में समझ नहीं पाता था खून उपर को भेजूं या नीचे! मुट्ठीभर दिल समझदार था पर गुरुत्वाकर्षण बल के आगे झुक जाता.
दफ़्तर माने 'साधो ये मुर्दों का गांव' - दयनीय हैं देसी! ना सोच में तासीर ना तबियत में कोई रंग - काठ के टट्टू हैं इन से नही बता सकते जीवंत यादें उस शहर की जो अभी-अभी मानसपटल पर उभरीं थीं. शहर जो अब इतना बदल गया, किसि और का लगता है. २-३ साल बाद देश अपनी गली में जो ढूंढने जाओ वो तो नही दिखता, पर बदलाव यादों पर भी अतिक्रमण सा करता लगता है. सुना था ई-बे पे सब बिकता है, टाईम-मशीन खरीदने की ट्राई मारी, नही मिली. सच, दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन. जबकी उम्र कोई ज्यादा नही हुई हमारी - रीसेन्टली में समय के बदलाव की चाल तेज हो गई है.
एक मित्र अपने शहर हो कर आया, फोन पे बोले यार एक बात कहता हूं - कभी गलती से खुदा से जवानी के दिनों वाली कोई दिख जाए,, ऐसी बद्दुआ मत मांगना, एक मेरेवाली दिख गई थी, जो पतली-पतंग सी बल खाती थी, टायर की दुकान हो गई! इस से तो खयालों मे सही थी.
यादों के सब जुगनू जंगल में रहते हैं हम यादें जीने के दंगल में रहते हैं.
बीच चौराहे पर बेचारे की यादों का कत्ल हो गया!
ये मित्र, मुझे बहुत प्यारा था, जब हम जवानतर थे, इस इन्सान में चरित्र नामक कोई दुर्गुण नही था. बडा ही सजीव प्राणी था, बहुत ही गर्विला लंपट था. पूरा व्यक्तित्व दो आँखे और एक लिंग तक सीमित था. हमेंशा भरी-पूरी लडकियां पटा लिया करता. बडी मुश्किल से शेर-शायरी सुना-सुनू के एक चतुर्नेत्रा से दोस्ती की - मित्र और हम बाईक पे - (हां वही अंड-संड-प्रचंड वाली बाईक), सामने से वो अपनी काईनेटिक होंडा पर आ रही है, देखते ही दोनो गाडियां सडक किनारे रुकीं. हम २ मिनट बात करके वापस आए और ये बोला "अबे कमाल कर दिया यार .. क्या चीज पटाई है प्यारे चश्मे-बद्दूर!" मजेदार बात कन्या मुस्कुरा रही है. फ़िर बोला - तो कब खेलेगा? अब वो शर्मा कर निकल ली! और मैं सोच रहा था कि ये कन्या एक बुद्धीजीवी किस्म की पढाकू बन्दी होगी! उसके बाद पटाने के तरीके में स्ट्रेटेजिक चेन्ज की जरूरत महसूस होने लगी! फ़िर ये बोला "अबे वो उतनी भी नर्डी नही थी जितनी तू समझा, सही है बे!" - हर एक का अपना फ़ील्ड होता है "कैसे भांपा तूने यार?" - प्रेक्टिस मेक्स मेन पर्फ़ेक्ट. मैं 'स्पेकी' की कल्पनाओं मे खो गया - वो शायद अब २-३ बच्चों की अम्मा बन चुकी हो!
लिखते हुए अंतर्यामिणी से कहा "चश्मेबद्दूर का पता लगवाने का आज भी मन करता है, चाय अच्छी तेज बनाती थी, वैसे चश्में मे क्यूट लगती थी, यार चाय बना दो!" अंतर्यामिणी ने दयाभाव से देखा. किस्सा-ए-फ़ेल्युअरी-ए-इश्क-ए-औना-पौना सुना अंतर्यामिणी की सहानूभूती चाय स्वरूप प्राप्त की जा सकती है पर याद लिमिट में की जाए!
चाय पीते-पीते पता नहीं किस-किस के साथ पी चाय याद आती रहीं - मीठी, कसैली, कडवी. देर रात को चाए पीने का मजा कुछ और होता था - देर रात तक पढते और ब्रेक लेने लिए शहर के बस स्टेण्ड या रेलवे स्टेशन चाय पीने पहुंच जाते वैसे शहर में राजवाडा मतलब डाउन-टाउन में चाय नाश्ते की दुकानें खुली रहतीं. दो-ढई बजे होंगे रात के, एक बार एक चाय की दुकान पर गीत बज रहा था, अपना इस गीत से भी रोमान्टिक लगाव है -
किशोर- पुकारो, मुझे फ़िर पुकारो मेरी दिल के आईनें में ज़ुल्फ़ें आज संवारो
लता- पुकारो, मुझे फ़ुर पुकारो मेरी ज़ुल्फ़ों के साए में आज की रात गुज़ारो!
तो चाय-वाले को कहा गया, जब तक हम यहां हैं यही गाना बारबार बजेगा. वैसे ऐसे काम करवाने के लिए दादागिरी की जरूरत नही होती थी - आशिक-टाईप अगर चार यारों के साथ आग्रह कर रहे हैं तो अनुग्रहित करना होता था! अब साथ वाले दोस्त पक गए .. चाय वाले के सामने तो कुछ नही कहा रास्ते में खुन्नस निकाली! उस के बाद कभी ये गाना चित्रहार वगैरह पे भी देख लेते तो मुझे कोसते! जाने कहां गए वो दिन! कल टीवी पर साण्ड दिखा था, अब साण्ड से ईर्ष्या होती है!
चमत्कार वो घटना जो अद्भुत रस की उत्पत्ती करे. चमत्कृत व्यक्ति क्षणिक निर्विचार की स्थिती से गुजरता है. अनुभूती विचार पर प्राथमिकता पा लेती है - यह हमारे और पाश्चात्य संस्कृती के मूल फ़र्कों मे से एक है, हम चमत्कृत हो कर खुश हैं वो चमत्कृत कर के. हमने निर्विचार पकडा उन्होंने जुगत. हमने मन के पार जाना चाहा उन्होंने तन-मन लगा कर हमारा धन लूटा.
फ़िर हम मे से अधिकांश मन के पार जाने लायक तैराक नही थे सो विचारहीनता को निर्विचार की जगह रख अब भाग्यवादिता के सहारे कटने लगी और इसे भक्तिरस का सुन्दर टेग लगा दिया "अजगर करे ना चाकरी पंछी करे ना काज, कह गए दाज मलूक जी सब के दाता राम". हम लुट कर खुश हो गए! कथा पता नही कितना सच है, हार के फ़्रस्टेशन में आतताई गोरी नें फ़ाईनली गायों को आगे कर हमले किया किए और गो माता के भक्त लडाके तलवार छोड कर सोमनाथ के मंदिर के सामने दंडवत हो लिए - "बचई ल्यो प्रभू बचई ल्यो तिहार भगत जो रहिन हम" मगर जब जरूरत थी तब कोई चमत्कार नही हुआ, कर्म से ही चमत्कार होते हैं. वीर रस भक्ति रस के आगे नतमस्तक हो गया -इस में भयंकर रस का कोई हाथ नही था.. एनी-वेज.. एक्चुली, बात करनी है चमत्कारी अनुभव के बारे में! तो कब चमत्कृत हुए बताना है - ठीक है!
अपने अनुभवों में अनुशासित क्रियाशील 'भक्तों' का जिक्र है- भारत में रह कर ऐसे एक-दो 'चमत्कारी' अनुभव ना हों तो मजा ही क्या? भूत-प्रेत, टोना-टोटका, तंत्र-मंत्र झाड-फ़ूंक बहुत ही विविध है हमारी गुप्त-विद्याओं का बाजार-मेला. विश्वास करने या ना करने का प्रश्न नही है - किस्सागोई का तो बहुत ही सटीक मसाला है, इस हिसाब से रमण भाई ने बहुत सही विषय चुना है!
हमारा किराए से चढा दुमंजिला मकान पारिवारिक आय में अपनी भूमिका निभाता था. उपर वाले हिस्से में एक परिवार आया, फ़िर नीचे वाला हिस्सा खाली हुआ पर १.५ साल तक किराए से नही चढा! पिताजी परेशान हुए, एक भक्त उनके मित्र हुआ करते थे, दोनो कार में साथ मकान के इलाके में कहीं जा रहे थे, हम साथ थे, बातों बातों मे पिताजी ने बताया की अच्छा भला मकान किराए नही चढ रहा. उन्होंने यूं ही मकान देखने की इच्छा जाहिर की. कार मकान के सामने रोकी गई. मकान में घुसते ही देखा उपर वाले किराएदार ने नीचे सुंदर गमले सजा रखे थे. तो उन्होंने एक गमले की तरफ़ इशारा कर के कहा - इसे दूर ले जा कर फ़ोड दें - गमला तोडा तो पाया गया उसमें सिंदूर वगैरह उल्टी सीधी टोना टोटका किस्म की चीजें निकलीं. ४८ घंटे मे ३-४ लोगों ने मकान किराए पर लेने के बाबद संपर्क किया. बाद में उपर वाले किराएदार से जवाब-तलब करने पर वो बोले "हमारी बिटिया जवान है, विवाह लायक है हम नही चाहते थे कि कोई और परिवार निचले हिस्से मे आ कर रहे हमनें मकान का निचला हिस्सा 'बंधवा दिया था'- जमाना खराब है साहब" .. बताईये! तो पिताजी नें उन्हें कहा 'हमने खुलवा लिया है' और ससम्मान सटक लेने को कहा. हम उग्र होना चाहते थे - चुप करा दिए गए, जैसा हमारे यहां होता था, "बडे बात संभाल रहे हैं ना!" खैर ऐसे किस्से आपने भी सुन रखे होंगे - एक और सही - अब ये भक्त अंकलजी से हमारी पटती थी, पूछा ये एक्स-रे विजन कैसे मिलता है गमले के आर-पार देखने वाला? बोले रोज सुबह ३ बजे उठ कर ध्यान करने से!
एक नेत्रहीन भक्त और हैं, ये तो बहुत ही जबरदस्त किस्म की आईटम हैं - इनकी करामातों में मेरे विवाह से पूर्व मेरी होने वाली पत्नी का विवरण बता देना, मुझसे फोन पे बात करते करते मेरे हाथ मेरे सिर पर हाथ रखे होने के बारे में बोल देना. वेतन कब कितना बढेगा बता देना वगैरह है. और भी बातें मेरे बारे मे बता चुके हैं जो देखना है कितनी सही निकलती हैं.
एक बार हम इनके साथ एक परिचित के घर बैठे थे, ये बोले चाय का पानी जितने लोग बैठे हैं उस से ४ कप ज्यादा के लिए रख देना. सो जब तक चाय बनी दरवाजे पे दस्तक हुई और ३ अतिथि अंदर आए, ४था कप ड्राईवर का था. बडी मजेदार बात है, इनके इस तरह के कमाल कर देने के आस-पास वाले लोग इतने आदी दिखे - सहजता से चमत्कारों के मजे लिए जा रहे हैं! ये बताते थे ७ साल की उम्र से साधनारत हैं. बिल्कुल मान सकता हूं.
मजेदार बात है ऐसे व्यक्तित्व वाले लोगों के संपर्क में बिना किसी कोशिश के आया और समय के साथ संपर्क छूट गया. बस ऐसे २-४ मजेदार अनुभव याद रह गए.
भारी जबरदस्ती है साली - रूमानी हो जावो! अंतर्यामिणी ने एक से ज्यादा बार इंगित किया की सहेलियां अपने अपने मियाँ के साथ इधर-उधर इस-उस रेस्त्राँ जा कर वेलेन्टाईन डे "एन्जाय" करेंगी.. हम भी अड चुके हैं - बोल दिए, सब अगर IE पे सर्फ़िंग करते हैं तो हम जवानी में कभी नेटस्केप पे थे आज फ़ायर-फ़ाक्स पर हैं. सारा हिंदुस्तान गोरा बनने के चक्कर में इन्गलिस इस्पीकीन इस्कूल जा रिया है और हम हरा पत्ता ले के राग हिंदिनी में अलाप रहे हैं, हमारी तो बस्स उलटबन्सी ही बजेगी - भाड मे गया साला वेलेन्टाईन-फ़ेलेन्टाईन! भैंस दी टँग्ग!! हमने अगर वोही किया जो सबने किया तो हम हम कैसे?? हम अपनी वाली चला कर ही रहेंगे. ये अपना अट्टेंशन पाने और अपने आपको non-confirmist, लकीर से हट के अपनी लकीर बनाने का कीडा है जिसका कुलबुलाना हमें हमारे अस्तित्व का अहसास करवाता - ये अपना मूल-स्वाभाव है, ऐसा ही हूं मै - अब कर लो जो करते बने!
हद हो गई यार, हम साल के ३६४ दिन रूमानी रह सकते हैं पर उस एक नही जब हमसे रूमनी होने की अपेक्षा की जावे, अपन ने पत्रिकाओं मे नुस्खे पढ कर और सेट-अप सजा कर मुहब्बत नही की, आए बात समझ मे तो ठीक वर्ना जो होगा देखी जाएगी, आज तो हो लेने दो सब्जी मे नमक तेज - कसम भगत सिंह की खुन्नस में आज मेरे प्यारे म्युज़िक सिस्टम पे भजन, दर्द भरे नगमे "ना किसी की आँख का नूर हूँ" और आएमे डीस्को डांसर जैसे फ़्लाप मिथुनी गीत बजा रहा हूँ!
और आप मे से जो जो किसी भी सामाजिक और भावनात्मक दबाव में रुमानी हुआ है और जबरिया फ़ूल-चाकलेट ले कर घर आया - तुम्हारा मेरा दुआ-सलाम-कलाम सब बंद - ये तुम्हारा व्यक्तिगत मामला नही है बन्धू ये दबाव की राजनीति हम मर्दों का भावनात्मक शोषण है और जेब पर डाका है - यलगार हो, हर-हर महादेव - काली शर्ट-पेन्ट पहन लो, विरोध प्रकट करने को... बजा दो सडे-सडे गाने अपने अपने स्टीरीयो पे और घोषणा कर दो की हमरे रूमानी होने मे अभी १२ घन्टे बाकी है!!
स्वीट-स्पाट मतलब मधुर बिंदु, कमरे का वो स्थान होता है जहां पर सीधी और परावर्तित ध्वनियाँ सब से बेहतर सुनाई दें. मधुर संगीत को तमीज़ से सुनने के लिए इतने प्रपंच करने की जरूरत इस लिए पडती है कि हमारे कान पास की ध्वनी को जल्दी और ज्यादा सुनते हैं कोई उपाय नही निकला है कि आप कमरे मे कहीं भी बैठ कर एक से संगीत का आनंद ले सको. तो हमें ध्वनियों की आवाज को और परावर्तन को कमरे के हिसाब से जमाना पडता है - ताकी एक संतुलित माहौल बन सके.
संगीत सुनना और सिनेमा देखना बिल्कुल अलग अलग तरह की जमावट कि मांग करते हैं. संगीत के लिए चहिए अनुभव गाने-बज़ाने वाल आपके सामने बैठ कर बजा रहे हैं और आप सुन रहे हैं. ध्वनियां साथ-साथ बज रही हैं पर हर एक की अपने आवाज का स्त्रोत अलग है निराला है. भव्य श्रव्य-मंच सज जाए.
सिनेमा के लिए चहिए अनुभव कि आप के आस-पास सब कुछ चल रहा है - वैसे तो सब आपके सामने पर्दे पर ही चल रहा है द्वी-ज्यामितीय पर्दे पर - मगर ध्वनी के माध्यम से त्री-ज्यमितीयता का भास हो- जब दृश्य में जरूरत हो. धमाकेदार आवाजें ऐसी आए की आपको लगे की सच मुच कोई बम या ज्वालामुखी फ़ट गया - चाहे पडोसी बिमार हो पर दिवारें हिल जाएं.
जैसे प्रकाश सीधी रेखा में गमन करता है परन्तु हम अवतल दर्पण की सहायता से उसे एक जगह केन्द्रित कर सकते हैं, स्पीकर्स की जमावट भी ऐसे की जा सकती है की हमें एक स्थान पर सबसे बेहतर आवाज आए. ध्वनी तरंगे हर दिशा मे जाती हैं परन्तु कोन जैसे स्पीकर्स उनको एक दिशा देने का प्रबंध करते हैं - आगे की ओर ही बढाने का - पीछे जाने वाली तरंगे बक्से में ही रह जर गुंजती हैं - आवाज तो अधिक होती है परन्तु आवाज का फ़ैलाव परावर्तित तरंगो द्वारा नही हो पाता - आवाज डब्बे से निकलती प्रतीत होती है - इस लिए एकाधिक स्पीकर्स का प्रयोग कर के हम जमावट बनाते हैं हर स्पीकर का मूह एक स्थान की तरफ़ को कर दिया जाता है. जमाव के कई तरीके हैं - संगीत सुनने के लिए २, २.१, ३, ३.१ स्पीकर्स का प्रयोग करते हैन सिनेमा के लिए ५.१, ६.१, ७.१ का प्रचलन है, रिकर्डिग के डोल्बी मानक बहुत कामयाब हुए हैं. आज-कल सभी इनके बारे मे जानते हैं. हर स्पीकर से निकलने वाली ध्वनियां अलग से स्पीकर तक भेजी और फ़िर बजाई जाती है. ये .१ का मतलब है वो बडा स्पीकर जो बस निचली तरंगे ही सुनाता है, धमाकेदार वाली. ध्वनियों की रिकर्डिग जमावट को ध्यान मे रख कर ही की जाती है ताकी सुनने वाले को दृश्य क हिस्सा ही बन जाने का अनुभव दिया जा सके. डोल्बी के अलावा कई मानक प्रयोग होते हैं - मोनो, स्टीरियो, टीऎचऎक्स - आज बच्चा-बच्चा इन से परिचित है.
एक बात और -
स्पीकर का चुनाव करने का एक महत्वपूर्ण नजरिया है उसकी उपयोगिता और आपका व्यक्तित्व - जी हां, आपके स्पीकर्स आपके व्यक्तित्व और पसंद के हिसाब से चुनें - कैसे?
कोई भी व्यक्ति ऐसा नही है जो या तो बस संगीत ही सुनता होगा या बस सिनेमा ही देखता होगा - सिनेमा भी संगीतमय होती है - खास कर हमारी देसी सिनेमा और हम देसी लोग तो संगीत प्रिय होते हैं.
फ़िर भी एक टेस्ट लो -
आप ज्यादा क्या करते हैं सिनेमा या संगीत? अगर सिनेमा तो कैसी सिनेमा? शोर-शराबे वाली या संगीतमय! अगर संगीत तो कैसा? धमाकेदार या शास्त्रिय या वाद्य प्रधान!
मैं वाद्य-प्रधान संगीत सुनता हूं मगर फ़िल्में धूम-धमाके वाली पसंद है अब एक ही सेट पर ये कैसे जमेगा?
मतलब आगे के साईड वाले स्पीकर पे खास जोर रहेगा और फ़िर वूफ़र भी हो दम दार - भले बीच-वाला स्पीकर और पीछे वाले स्पीकर थोडे कमतर हों तो भी मेरा ८०% काम चल गया समझो - तो आपको अपनी जरूरत के हिसाब से तय करना होता है.
अब हमारे एक मित्र जिन्हे डायलाग सुनने में ज्यादा मज़ा आता है साथ ही टीवी अधिक देखते हैं मगर धमकों से सर-दर्द हो जाती है - तो उन्हे एक शानदार बीच वाले स्पीकर की दरकार है भले और उस से मिलते जुलते ही - ज्यादा बडे नही, साईड वाले, छोटा वूफ़र काफ़ी रहेगा. पीछे ज्यादा बडे स्पीकर नही चाहिए.
मान लीजीए किसि भी विभाग में कमी-बेशी बर्दाश्त नही है - हर अनुभव आदर्श चाहिए. ठीक है, अब आप शान-दार स्पीकर्स, महंगे सराउण्ड स्पीकर्स और धमाकेदार वूफ़र से लैस हो गए मगर संगीत सुनते समय कंसर्ट का अनुभव भी चाहिए और सिनेमा के समय पूरा माहैल भी - अब आपको एक खास उपकरण की जरूरत होगी जो आप आपकी हर मुश्किल का हल कर देगा - सही पहचाना बंधुओं - अब आपको एक मल्टी-फ़ारमेट रिसीवर से अपने स्पीकर जोडने होंगे और ये आपको सुनने के लिए आदर्श परिस्थितियां बनाने के काम आएगा.
फ़िर भी आप कभी भी कहीं की ईट कहीं का रोडा भानूमती ने कुनबा जोडा वाला सेट-अप नही बनाएं - ना तो ऐसा सेट-अप दिखने में सुंदर होगा ना ही सुनने मे. सारे स्पीकर्स एक ही आकर के भी लिए जा सकते हैं - देखना ये होता है की आपकी अपनी जरूरत क्या है!
रिसीवर = प्री-एम्प्लीफ़ायर + एम्प्लीफ़ायर. एम्प्लीफ़ायर = आवाज को बढाने का उपकरण प्री-एम्प्लीफ़ायर = एकाधिक आवाज से स्त्रोत (टेप, सीडी, विडिओ, रेडिओ) से विद्युत संकेतों को ले कर हर स्पीकर को भेजे जाने वाले संकेत को अलग अलग कर के एम्प्लीफ़ायर को भेजने वला उपकरण.
डाल्बी या टीएचएक्स मानक में रिकर्ड किये गए ध्वनियों को बजाने के लिए स्पीकर की जमावट हमने देखी मगर जब तक अपनी तरफ़ से कुछ कम-ज्यादा खुराफ़त नही की तो मजा कैसा?
जमावट के साथ कमरे के आकर के हिसाब से, अपनी पसंद के संगीत और स्पीकर्स के हिसाब से खुराफ़ात कैसे करेंगे ये देखेंगे आगे! ये तो बस शुरुआत है.
देखें विचित्र भोंगे और जानें स्पीकर्स की पक्की परख और परीक्षण कैसे करें? (खास स्पीकर स्टेंड)
भोंगा पुराण के पहले भाग मे स्पीकर्स के खास खास प्रकारों का तुरत-फ़ुरत जायजा लिया हमनें.
ऐसा क्यों होता है की एक से ही दिखने वाले कुछ स्पीकर महंगे होते हैं, कुछ सस्ते. कभी कभी सस्ते स्पीकर्स की आवाज ज्यादा अच्छी लगती है महंगे स्पीकर्स से. जो दुकान में अच्छा सुनाई दे रहा था घर पर वैसा अच्छा सुनाई नही दिया - क्यों?
स्पीकर्स का बाज़ार बहुत गोरखधंधा है, सही, मगर उपभोक्ता भी कुछ बातें नजर अंदाज कर जाते हैं -
पुनर्निमित ध्वनियों की गुणवत्ता सबसे अधिक स्पीकर पर ही निर्भर करती है पर आपको स्पीकर्स से दोस्ती करनी होगी - उनके बारे मे राय बनाने से पहले उनको सुनने का उत्तम माहौल तैयार करना होगा - वो घर पर करने का काम है - उसके बारे मे इत्मिनान से बात करते हैं पहले एक तकनीकी पक्ष -
संगीत बजाना एक लम्बी कडी का काम है, रिकॊर्डिंग बहुत स्पष्ट हो, कापी किया हुआ या कम गुणवत्ता का या बहुत ही पुराना लाईव रिकॊर्ड किया संगीत वो मजा नही दे सकता , प्लेयर अच्छा हो, वायर्स मे कोई टूट-फ़ूट ना हो और स्पीकर को चलाने वाल उपकरण स्पीकर के मानकों के हिसाब का हो - खुले बाज़ार से कसवाए उपकरणों जिनके तकनीकी ब्योरे ना मिले, से बचना चाहिए - क्योंकी अलग-अलग उपकरणो मे ताल-मेल बिठाना पडता है और इस के लिए हर उपकरण के बारे में ये पता हो की वो किस प्रकार के दूसरे उपकरण के साथ बेहतर चलेगा. अगर इस सब से बचना हो तो अपने कानों को अच्छा लगने वाले डिब्बा-बंद सिस्टम जिसमें प्लेयर, एम्प्लिफ़ायर या रेसीवर और स्पीकर सब साथ आते हैं ही ले लेना चाहिए. उनकी परख पर आगे जानेंगे.
(डायनामिक-स्टेटिक हाईब्रिड)
अब अगली बात, डब्बे जैसे बजने वाले, उन्ची आवाज मे भर्राने वाले, कम आवाज मे संगीत की पूरी रेंज का मजा ना दे पाने वाले स्पीकर्स को सिरे से खारिज कर दो. इसके लिए अपने मन पसंद संगीत को किसी बेहतर से बेहतर माल बेचने वाली दुकान पर बेहतर टेस्ट-सेट अप में एकाधिक बार एकाधिक सिस्टम पे सुनो और उसके गुणों को समझो.
स्पीकर वो जो सुनाई ना दे - हां सही पढा आपने, स्पीकर वो जो (खुद) सुनाई ना दे - वो बस सुनाए! उसका काम संगीत को ज्यों का त्त्यों रखना है, अपने आप का कोई गुण प्रदर्शित करना नही है. आवाज ऐसे आए जैसे किसि पारदर्शी माध्यम से हो कर सीधे अपने मूल से आ रही है, रिकार्ड हुई पर गाने वाला या बजाने वाला यहीं है इतना सच्चा आभास हो सके.
अक्सर संगीत में हमें निचली आवृत्ती की आवाजें अच्छी लगती हैं मगर अधिकतर आवाजें मध्यम आवृत्ती की होती हैं और कुछ घंटी नुमा आवाजें उच्च आवृत्ती की होती हैं , इनका संतुलन हो और अपको इनको प्लेयर पर संतुलित करने की जरूरत ना पडे! कम आवाज में पूर्णता रहे और आवाज बढाने पर कर्कश ना हो - आवाज मे खालीपन ना हो और नकली भारीपन ना हो. अब एक आदर्श स्पीकर - वो माहौल को आवाज़ से एक सा लबालब भर दे - बिना कानों पर शोर-शराबे का बोझ डाले - ऐसा ना लगे कि इस या उस कोने से आवाजें आ रही हैं और हम सुन रहे हैं - छोटे स्पीकर्स में ये गुण नही हो सकता इस लिए आज कल छोटे स्पीकर्स का एक पूरा समुच्चय कमरे मे आव्यूह जैसा लगा दिया जाता है - जिसका कुल जमा काम कमरे को सीधी और परावर्तित ध्वनी से भर देना होता है मगर आकार छोटा होने से आप मध्यम आवृत्ती की ध्वनियों के साथ अगर काफ़ी नही तो कुछ हद तक ही सही, नाइंसाफ़ी कर ही दोगे - एक बात - संगीत सुनने का मजा परावर्तित ध्वनियाँ बढाती हैं - इसलिए, महौल बस संगीत ही सुनने के लिए, आदर्श तरीके से बनाने के लिए दो स्पीकर्स का कैसा जुगाड जमाते हैं वो आगे जानेंगे.
अगर रिकार्डिंग अच्छी है तो उसकी एक खासियत को हमरी जमावट ने खास जाहिर करना चाहिए - वो है हर वाद्य का दूरसे वाद्य से हर गायक की दूसरे गायक से पारस्परिक त्री-ज्यामितीय (थ्री डायमेंशनल) और ध्वनीय आपेक्षिकता (म्युज़िकल रिलेटिविटी) आपको माहैल में महसूस हो. कौन आगे बैठ कर बजा रहा है और कौन पीछे है, किसकी आवाज कब ज्यादा और कब कम ज़ाहिर की जा रही है -एक दम सटीक श्रव्य अनुभूती हो!
कुछ मुद्दे की बातें - आप एक ही स्पीकर के सेट पे संगीत और फ़िल्मों का या होम थिएटर का अनुभव अगर लेना चाहते हैं और वो भी बिल्कुल ही आदर्श तरीके से - मतलब की जब संगीत सुनें तो कंसर्ट हाल का अनुभव हो और जब फ़िल्म देखें तो सिनेमा हाल का - सोचिए क्या हम बस का काम ट्रक से लेते हैं या ट्रक का बस से? जहां जिस किस्म का परिवहन चाहिए -वाहन मे परिवर्तन होता ही है. ध्वनी के साथ भी यही सत्य है - फ़िर भी एक संतुलित सिस्टम कैसे बना सकते हैं ये देखेंगे आगे. (प्लेनर-डायनामिक हाईब्रिड)
मेरी बस एक रात के रतजगे का नतीजा है हिंदिनी का श्री गणेश!
आजकल आपके ब्लाग के प्रबंधन के कई साफ़्टवेयर उपलब्ध हैं. आपकी साईट हिंदी मे होगी, आपको बिल्कुल ज्यादा मगजमारी करने कि जरूरत नही है - दोस्तों पे भरोसा करो और वर्डप्रेस को चुनो! ये मुफ़्त का हीरा है - जिसको चमकाने वाले लोग आपके अपने हैं. और ये दुनिया के किसि भी ब्लागिंग साफ़्टवेयर से टक्कर ले सकता है! आप ब्लागर बंधुओं जैसी सहायता नही पा सकते - ये मेरे अनुभव के आधार पर बता रहा हूं. क्यों की हमारे लोग सारी दुनिया मे रहते हैं और संपर्क मे होते ही हैं सो रात के २ बजे भी कोई दिक्कत नही होगी. एक और फ़ायदा कि आप चाहें तो अपना या सामूहिक ब्लाग या लेखन प्रबंध कर सकते हैं.
सबसे पहले अपनी खुद की साईट खडी करने का फ़ायदा क्या है जब की ब्लाग-स्पाट मुफ़्त की जगह और टूल देता है!
फ़ायदा है -
१. आपके एक स्थाई और गंभीर ब्लागचिए होने का पहला सबूत आपका डामेन होता है. एक कडी जो आपके ब्लाग से ही जुडी हो बस.
२. आपका अपने ब्लाग कि सज्जा पर पूरा नियंत्रण और आप के पास ब्लाग से संबंधित ई-मेल आईडी.
३. आपके फोटो, ब्लाग, अन्य फ़ाईलें रखने का आपका अधिकार क्षेत्र.
४. ब्लाग तो क्या आप अपने व्यवसाय की जालस्थली, मित्रों के ब्लाग, और कई दूसरी जरूरतों के लिए इस स्थान का प्रयोग कर सकते हो.
५. मनचाही एप्लिकेशन्स और टूल्स का प्रयोग कर सकते हो.
६. तर्क संगत वर्गीकरण पोस्ट्स का!
सबसे पहले एक साईट का नाम रजिस्टर करवाया.
फ़िर साईट को किस कंपनी के सर्वर पे रखना है वो तय किया.
अपनी साईट का नाम सोचिए और नाम को रेजिस्टर करवा लीजिए.
फ़िर साईट का डाटा कहां रखा जाएगा वो तय कर लीजीए.
जब भी ये काम करना हो, अक्षरग्राम पर एक पोस्ट कर दीजिए, एकाधिक लोगों का जवाब आने दीजीए और अपनी गूगालबाज़ी चालू रखिए, आप कोई भी ऐसा काम नही कर रहे जिस पर किसि और ने अपना हाथ ना आजमाया हो, आपको तत्काल सही भाव वाली साईटों की जानकारी मिल जाएगी. फ़िर इसी बहाने इन कंपनियों के रीव्यु इत्यादी भी मिल जाते हैं.
आपको दोनों कंपनियों की साईट पे कुछ फ़ार्म भरने होते हैं फ़िर वो आपको बता देतें हैं कि आपका काम करने मे उनको कितनी देर लगेगी. वैसे ये दनादन मेलें भेज देते हैं ४-५ मेल - जिसमे सारी जानकारी होती है. आसान है.
जब ये दोनो काम हो जाए तो अब आपको ये जमाना है कि जब कोई आपकी साईट क पता डाले अपने ब्राउजर पर तो वो आपके होस्ट तक पहुचे. ये करना बहुत आसान होता है.
जब आप नाम रजिस्टर करवाते हो तो वो कंपनी एक पेज दिखाने लगती है - "शीघ्र आ रही है ... आपकीसाईटकानाम.आपकीसाईटकाप्रकार" आपकी साईट होस्ट करने वाली कंपनी आपको दो पते देती है जो नेमस्पेस कहलाते हैं .. आपको ये पते अपने रेजिस्टर करने वाली साईट पे लाग ईन कर के डाल देने होते हैं. बस! कोई दिक्कत आए तो अक्षरग्राम है या आप कंपनी से संपर्क कर सकते हो.
मैने २-३ लाईनों की ई-मेल की जीतू भाई को, कि अगली स्टेप क्या होगी - और जवाब मिल गए!
are yaar, aaj kal fantastico naam ki scripts milti hai, web par.
u do not need to do anything, except run such script. they would do
everything for you. Raman Kaul has more information about these
fantastico script.
चूंकी हम वर्डप्रेस का प्रयोग करेंगे सो मैने पहले ही php/mysql होस्ट करने वाले कंपनी चुनी. कंपनी वालों के पास ८० से अधिक साफ़्टवेयर और उनको लगाने कि १-२ बटन दबाउ स्क्रिप्ट भी थी ना हो तो आप उस को इन्टर्नेट से ले सकते हो. मैनें ये स्क्रिप्त सूची मे देखी और लो जी वर्ड्प्रेस इन्स्टाल हो गया. १ पेज का फ़ार्म भरा कि जी हमरा नाम ये और साईट का नाम ये दिखा दो ,आप अपने आभी के ब्लाग का डाटा भी नए ब्लाग पे ला सकते हो. लो जी बन गया नया घर.
अब बात आई हिंदीकरण की, अक्षरग्राम पे जितू भाई बता रहे हैं वर्ड प्रेस १.५ की मदद और हमारी स्क्रिप्ट ने लगाया था १.२ - पल्ले नही पडा क्या हो रहा है - फ़ाईलें किधर हैं? फ़िर पंकज जी को फ़ोन घुमाया, मुझे बात साफ़ हुई, जितू भाई से संपर्क किया और हम १.२ को १.५ बनाने और हिंदीकरण मे जुटे. आपको तो और भी आसानी होगी. रमन जी ने ताजे १.५ का हिंदीकरण कर दिया है. आपका काम तो अब बिल्कुल सीधे-सीधे हो जाएगा.
मेरी बस एक सलाह है, जब भी आपका ब्लाग या साईट शुरु करने का मन हो किसि भी जरूरत के लिए, आप साथियों से मदद लेने मे हिचकिचाओ मत.
यहां पर सब प्रोफ़ेशनल खब्ती हैं - हर एक की अलग गुणवत्ता है, रमणजी और पंकज जी आलराउन्डर हैं.
जितू पेलवान, रीमोट डेवलपमेंट के उस्ताद, याहू मेसेन्जर से सब हेण्डिल करते हैं, माने हुए ओपनर हैं. गुस्सा आ जाए तो सेंचुरी मार कर ही दम लेते हैं और नए खिलाडी पे लोड नही आने देते, मेरी नैया इन्होने ही पार करवाई - उस पर तो एक अलग पोस्ट बनती है, मूड बना कर लिखुंगा - अदा भी निलारी है, पेटर्न कुछ यूं है - "यार तुमने ऐसा क्यो किया"... "चलो कोई नी" ... "गूड".. "फ़िर....ये क्यो किया"... "चल कोई नी"... "गूड" .. हा हा और एक बार तो खुद ने फ़ाईलें भलती जगह डलवा दी और हम दोनो कि हंस हंस के हालत खराब, काम अनुशासित तरीके से पक्का करते हैं. सच एक बहुत मजेदार पोस्ट बनेगी उस रात वाल पूरे वाकये पर. बहुत मददगार; मजेदार शख्सियत है इनकी! हां भाव पहले तय कर लेना बडे भाई की मदद लेने से - मजाक मे बोले अब १०० डालर भेजो फ़ीस के. हा हा हा. सच मदद और राय तो २०० डालर वाली थी इनकी. और हंसा हंसा के खून इतना बढा दिया कि अगले दिन रक्त दान का मूड बना रहा.
अतुल जी के बाउन्सर फ़्लेश प्लेयर को तो आप देख ही चुके हो. हाँ, दुर्लभ दर्शन देव बाबू का चिट्ठा-विश्व देख कर दिल खुश हो जाता है, जावा के धनी लगते हैं.
बस ये सपना है कि हिंदी के कुकुरमुते तो क्या पीपल और बरगद जैसी साईट्स बनें टूल्स बनें - बिल्कुल भी असंभव नही है.