Sunday, March 27, 2005

ई-स्वामी की ई-छप्पर

मालवीमानुस आलसी नही होते, आरामपसंद होते हैं. आलसी के पास काम होता है और वो करता नही, हम काम पैदा ही ना हो इस योग के साधक हैं - निष्काम-योग की परिभाषा मालवी संस्कृती जरा अलग तरीके से समझी है. अब क्या करें साहब, बम्मन लोगों ने संस्कृत के पेटेंट ले कर सब गडबड कर रखा था ना.

लोकल संतन का कथन है - फिरी का चंदन घिस मेरे नंदन, सो, हम blogspot पर कई मौसम पडे रहे, आगे भी पडे रह सकते थे चाहते तो और अतिक्रमण भी कर सकते थे! मगर अब हम अच्छी लोकेलिटी में रह कर अभिजात्य हुआ चाहते है, वैसे ये पता पुश्तैनी रेफ़रंस जैसा संभाल के रखेंगे - जैसे हमरे दादा जी दूसरे बुजुर्गों को वो हमेशां किस पिण्ड(गांव) से है, बताते थे!

ई-स्टोरी ये है की, जैसे-तैसे हिंदिनी के पिछवाडे फ़िलहाल एक छप्पर अपने लिए भी तान दिये हैं, तो अब वहीं मिलेंगे! रस्ता है इधर से.

Saturday, March 12, 2005

बेचारा लल्लू!


पुरुष और स्त्री अलग अलग प्रकार के जीव हैं और दोनों एक दूसरे की खोपडी की कार्यप्रणाली समझ सकें इस लिए हजारों पुस्तकें उपलब्ध हैं - ठीक है साहब, अगर प्रेम कम है और दिल का काम दिमाग से ही लिया जाना है तो किताब पढ कर निभा लो.

अब इधर समान अधिकार पाने के मामले में पश्चिमी कोमलांगियाँ साक्षात रणचण्डी की प्रतिमूर्ती होती हैं - लिंग-भेद कानूनन अपराध है मगर जेंडर-प्रोफाईलिंग या लिंगाधारित विभेदन जोरदार होता है - विसंगतियाँ आह-और-वाह सी साथ साथ बहती हैं. तो स्त्री पुरुष अलग अलग प्रकार के जीव हैं वो कोमल हैं और संवेदनशील भी और हम अपरिष्कृत ढीठ हैं - धन्यवाद! मगर मरद की मजाल जो "अपवाद भी तो होते हैं" इतना भी बोल कर भाग पडे! अब १८-२५ साल की उम्र का पुरुष ज्यादा कार इन्शोरेंस दर देता है तब कोई स्त्री आ कर नही कहती की भई हम भी तेज भगाते हैं और सेल फ़ोन पे खी-खी करते हैं!

स्त्रीत्व का रंग गुलाबी है अगर पुरुष गुलाबी रंग पहन ले - हा-हा-कार! स्त्री भावुक फिल्में ही पसंद करती हैं और पुरुष मारपिटाई वाली, फ़ाडू-डरावनी-भूतहा, फुटबाल-सिरफुटव्वल-बाक्सिंग इत्यादी. चलो सिनेमा तक ठीक है की आप चहे जो हांक लो पर इधर और हजारों तरीके हैं जेंडर प्रोफ़ाईलिंग के जिनमे से लगभग सारे ही पुरुषों के ही खिलाफ़ जाते हैं!

हकीकत - सब बकवास बात है, आम तौर पे जितनी डरावनी पश्चिम की नारी होती है या पश्चिमीकृत भारतीय मूल की बालाएं होती हैं शायाद ही कोई और जीव होता हो. समाज नही है जसपाल भट्टी के उल्टा-पुल्टा का सीधा प्रसारण है साला! पर यार पुरुष भी ना, स्त्री-पुरुष संबंधों के मामले में कई काठ के उल्लू तो बहुत ही खुन्नस दिला देते हैं कसम से अब इन डायनिकाओं को भी पूरा दोष नही लगा सकते! एक केस स्टडी लो -

हाल ही में अँतर्यामिणी की मित्रता एक ऐसी ही डायनिका से हो गई है. वो हमारे यहाँ दो दिन के लिए सपति पधारीं - अब तक इस भारतीय एच-4 धारीणीं और उसके लल्लू मिय़ाँ द्वारा हमारे घर में उनकी आपसी चुम्मा-चाटी, गलबहिंयाँ डाले ही बैठना, पतीदास द्वारा पत्नी के पैर दबाना - फुट-मसाज देने के नाम पर इत्यादी क्रिया कलाप देख चुका हूँ. प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन चल रहा है - बढिया है. भई आपसी सेवा होनी चाहिए. पत्नी के पैर दुख रहे हैं या नही पर् पति दबा रहा है - सुंदर दृश्य हो सकता है पत्नी पति की गोद में पैर रख के लेटी है, और वो फ़ुट मसाज दे रहा है इधर हम बैठे हैं नजारा देख रहे हैं - देखो इसे बोलते हैं आत्मसमर्पण! मुझे भी ना पता नही कैसे कैसे असमय विचार आते हैं, याद आ रहा है अगर किसी जीव को अनजाने पैर लग जाता था तो हमारे गाँव मे छू कर माफी माँग ली जाती थी, चलिए पति-पत्नी अलग मामला रहा और माना आप हमें इतना अपना मान रहे हैं की हमारा घर भी अपना लग रहा है अहोभाग्य अतिथिदेव-देवी परन्तु आखिर इस प्रेम-प्रदर्शन की सीमा रेखा क्या है? खयाल आया और आ कर चला गया. पैर दबते रहे - कोडेक मोमेंट, कैसे खीँचू और जवान के बाप को पहुचाउँ वाह बाउजी क्या प्रेमी सँतानें हैं कसम से - जहां जाती हैं प्रेम करती हैं.

मैडम की बातें, इन को लोगों को एनालाईज़ करने का शौक है, अभी एच-4 पे काम नही कर सकती हैं. अपने आस-पास के लोगों पर राय प्रकट करती हैं लल्लूपति निहाल हैं इनकी इस काबिलियत पर, बताते हैं दफ्तर का कोई भी निर्णय मैडम से पूछे बिना नही लेते - इस को बोलते हैं सहचारिणीं. मैडम दियाँ गल्लाँ, ये हर एक से ऊपर हैं - एमबीए कर के आई हैं. जय हो! जय हो!! अपन भी ढीठ हैं, स्याने भी - एक चुप सौ सुख. लल्लू को सीख नही दे सकते की बेटा पीठ टटोल और अपनी रीढ ढूँढ, ये प्रेम नही है मेरे लाल - मरने दो साले को!

लल्लू पढा लिखा आदमी है, बहुत चालाक और समझदार भी है, सफल भी - बहुत सफल! नेक भी है, पर यही होता है जब किसी गधा-हम्माल पढाकू के जीवन में जो पहली और एकमात्र लडकी आती है उसी पर लट्टू हो जाने पर. मूरख को लगता है किस्मत खुल गई जी वाह वाह, प्रेम पा गया - इधर समझ में आ रहा है -टाईम पर सही मुर्गा फांस लिया छोकरिया बडी तेज थी, जीनगीभर हलाल करेगी. प्रेम-विवाह - हेप्पीली मेर्रीड एवर आफ्टर!

अँतर्यामिणीं ने लल्लू के लिए मेरे मुखडे पर दुखडा देखा और डायनिका को सपति विदा करने के बाद आगे से ऐसा हृदयविदारक जोडा कभी ना आमंत्रित करने का निर्णय भी लिया. बेचारा लल्लू!

Wednesday, March 09, 2005

अक्षरग्राम अनूगूँजः सातवाँ आयोजन - बचपन के मीत


तब हमारे साथ साथ शहर बडा हो रहा होगा, मगर शहर में हो रहे बदलवों के बारे में बिल्कुल अनभिज्ञ रहे हम! बचपन का जीवन अपने स्कूल और मुहल्ले तक ही सीमित था. मध्यमवर्ग - ये शब्द कई आर्थिक सामाजिक सीमितताओं का प्रतिनिधित्व करता है और उस समय के मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे एक अनोखी समझ से अपने संसाधनो मे से मनोरंजन के साधन खोज लेते थे. खेलों के उपकरण - एक की गेंद दूसरे की बैट और टूटे फ़ाटक के स्टंप बना कर क्रिकेट शुरु! गेंद गुमाने वाले को नई गेंद ला कर देनी होती थी! गुल्ली-डण्डे की गुल्ली पर भी यही नियम लागू था. पतंगबाज़ी, कंचे-गोटिया तो कभी सात फ़र्शी पत्थर जमा कर सितोलिया खेला जाता था! गली के दोस्तों के साथ मित्रता थी पर पक्का मित्र सहपाठी ही था! Akshargram Anugunj


यह मित्र और मैं पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक सहपाठी रहे और पक्के मित्र भी. बचपन के इस मित्र के पिता का तबादला हुआ और ये दूसरे शहर चला गया. पिछली बार दस साल पहले मिले थे - मित्रवत प्रेम बना हुआ था. आज जब पीछे मुड के देखता हूं तो लगता है मित्र से मित्रता थी मगर हमरी मित्रता में वो गहराई नही थी जो मैने कई औरों की मित्रता में देखी है - खासतौर पर जो बचपन के मित्र होते हैं उनकी मित्रता में जो फ़ौलाद होता है - अपने केस मे नादारद रहा. मित्रता चल रही थी क्योंकी कोई परिक्षा की घडी नही आई, अगर आती तो मित्रता निपट जाती. उस के व्यक्तित्व में मेरे लिए मरने मारने पर उतारू हो जाए इतना तसीर नही था - हां मेरे मे था. अब ये किस्मत की बात होती है.

दोनो मित्रों ने साथ बहुत मस्तियां कीं - एक याद आ रही है -

हम तब सातवीं कक्षा में थे, रोज सुबह प्रार्थना होती थी. रामभरोसे हाईस्कूल में आठवीं तक डेस्क-दरी पे बिठाने का रिवाज था. तो प्रर्थना पूरी होते ही पैरों को आराम देने के लिए सब पहलू बदलते. कक्षा में एक सहपाठिनी पहलू घुटनें जरा उपर को कर के बदलती थी - ये रहस्य अपने राम खोज चुके थे - अब उस क्षणमात्र में स्कर्ट उपर होती, सहपाठिनी के लज्जा-वस्त्र के दर्शन हो जाते थे. रहस्य मित्र को बताया गया कुछ ही दिनों में मित्र और मैं प्रार्थना शुरु होने से पहले लज्जावस्त्र का रंग "गेस्स" कर के शर्त लगा चुकते थे. प्रार्थना पूरी होने का बेसब्री से इंतजार होता - बस्स प्रार्थना पूरी होते ही दोनो बडी स्टाईल से मुण्डी घुमाते - किसि को पता ना चले और लज्जावस्त्र के दर्शन पा लेते - सही!!

जो जीतता, यानी जिसका गेस्स किये हुए रंग का ही लज्जावस्त्र उस दिन पहना गया होता वो खिल जाता! दोनो में से जो हारता वो स्कूल खत्म होने पर दूसरे को समोसा खिलाता. अब अगर दोनो ही गलत निकल जाएं तो फ़िर अपने अपने पैसे की खाते. अब दोनो की रफ़ कापी के पीछे रोज पिछले दिनों पहने गए रंगो की लिस्ट होती थी - तो बाकायदा जैसे सटोरिए या लाटरीबाज कल खुलने वाले फ़िगर का कयास पिछले अंक देख कर लगाते हैं सो हम भी कुछ वैसा ही करते - "कल लज्जावस्त्र लाल था उस के एक दिन पहले भी लाल था, आज नहा कर आई है परसों काला था तो आज फ़ूलों वाली सफ़ेद पहनी होगी." और वहीं मित्र लाजिक भिडा रहा है "पिछले तीन गुरुवार से एक ही रंग - भई काला रीपीट होगा"

बडा होने के बाद जब जब प्रोबेबिलिटी, एक्स्ट्रापोलेशन और फ़ोरकास्टिंग विधियों के बारे मे कुछ भी पढा - सातवीं का किस्सा याद आया.

Thursday, March 03, 2005

ब्लागनाद काण्ड और अतुलजी के अनुगूंज प्रस्ताव का अनुमोदन


जन्नतनशीं दादाजी कहते थे - "दुनिया में दो किस्म के लोग होते हैं - रायचंद और करमचंद - करमचंद बनना और करमकचंदो से मित्रता रखना! " दादाजी को निराश करने का कोई मूड नही रहा.

अनूप जी का पीला वासंती चांद पढा था और पंकज जी का आडियो ब्लाग सुना फ़िर 27 जनवरी 2005 को अक्षरग्राम पर एक संभावना तलाशी -


कल्पना कीजिये कि आप जो भी अपने ब्लाग पे पेलते हैं वो आपने एक .mp3 मे भी रेकार्ड किया.
अब ऐसी सभी recorded .mp3 की स्ट्रीमिन्ग ठीक उसी तरह आन-लाईन रेडियो के रूप मे कर दो, जैसे हम नये ताज़े RSS Feed दिखा देते हैं चिट्ठा विश्व के माध्यम से. इस के लिये पहले .MP3s को किसि भी सर्वर पे चढा दो और उसकी लिन्क के साथ कुछ “RSS Feedनुमा” करो, या जो भी बेहतर उपाय हो ऐसा करने का!
Streamer कि लिन्क दे दो, जो रेडिओ जैसा बजेगा आपके प्लेयर पे, सबसे ताज़ा
updated .mp3 सबसे पहले! तो आपका हिन्दी ब्लाग रेडिओ बन गया. Headphones लगाओ और पीला वासन्ती चाँद अनूपजी की आवाज मे सुन लो - आवाज़ का उतार-चढाव भावनाऒ का बेहतर संप्रेशन. अगली .mp3 नरुलाजी की!


फिर सोचा संभव तो होना चाहिए ये करना और उसी दिन के आस-पास ही अतुल भाई ने घोषणा कर दी की हाँ सँभव है!

शुरु से अतुल भाई तकनीकी तौर पर छा गए - मेरी फाईल-नाम की जगह कडी के पते से बजवाने की गुजारिश भी पूरी कर दी ये एक खास टर्निँग पाईंट था, प्लेयर भी शानदार पेल दिया - प्लेयर जान् है पूरे प्रकल्प की - अब प्लेयर ने काफी सीन सँभाल लिया है - जहाँ से जो जी मे आए बजाओ!

अतुल भाई का प्लेयर बन कर तैयार हुआ और जीतू भाई अधीर भए - मुझे आदेश मिला कि पीछे का कोड लिखो - और फटाफट पहला चरण तैयार करो. भई पढूँ तो करूँ मुझे आटोमेटिक मीडिया फीड के बारे मे कुछ ज्यादा नही पता था! बोले नही यार पहले सादा काम करो - पहले प्रकल्प दिखाओ फाईल लोड करने का पेज बनाओ - मैने निवेदन पेला भई पेज बाद में गूगल का 1 जीबी ई-मेल कब काम आयेगा "बडे भाई, ई-मेल मे फाईल मँगवा और आटोमेटिक क्षमल बनवा कर सुनवा दूं ताबडतोड?" जीतू भाई की चेट क्या होती है प्रोजेक्ट मेनेजमेंट होता है खुले दिल से आईडिए इधर-उधर होते हैं. बात तय हुई नाम तय हुआ ब्लागनाद - बकायदा डेड-लाईन तय हुई, मेरे पास एक और प्रोजेक्ट अपना समय ले रहा था और उपर से दफ्तर! जीतू भाई उतरे मैदान में KISS - Keep It Simple Stupid का फंडा-झंडा ले के! बीटा रीलीज देख कर तबियत प्रसन्न है. अनूपजी के अंदाज में कहूँ तो - "आगे भी शुभ होगा!" या अपनी स्टाईल मे- "ये तो बस अंगडाई है - आगे और लडाई है!" :-)


अभी मामले खत्म नही हुए - आपको सुनाने के लिए एक और खुशखबरी तैयार हुई-हुई ही समझो - थोडा इन्तजार!

अतुल भई के आईडिए का मैं अनुमोदन करता हूँ - अनुगूंज को ब्लागनाद पर भी लाया जाए - या ब्लागनाद की तकनीक अनुगूंज जहां भी हो वहां मुहैया हो! - आईडिया मुझे पस‍ंद है पर तय करना मेरा काम नही है! मेरा स्वार्थ तो अनूप जी की आवाज में पीला वासंती चांद सुनना था - अनुग्रहित करो देव!

आपने मुझे इतने प्रेम से पढा और ब्लाग रेडिओ के स्वप्न को साकार कर दिया - आभार!