मालवीमानुस आलसी नही होते, आरामपसंद होते हैं. आलसी के पास काम होता है और वो करता नही, हम काम पैदा ही ना हो इस योग के साधक हैं - निष्काम-योग की परिभाषा मालवी संस्कृती जरा अलग तरीके से समझी है. अब क्या करें साहब, बम्मन लोगों ने संस्कृत के पेटेंट ले कर सब गडबड कर रखा था ना.
लोकल संतन का कथन है - फिरी का चंदन घिस मेरे नंदन, सो, हम blogspot पर कई मौसम पडे रहे, आगे भी पडे रह सकते थे चाहते तो और अतिक्रमण भी कर सकते थे! मगर अब हम अच्छी लोकेलिटी में रह कर अभिजात्य हुआ चाहते है, वैसे ये पता पुश्तैनी रेफ़रंस जैसा संभाल के रखेंगे - जैसे हमरे दादा जी दूसरे बुजुर्गों को वो हमेशां किस पिण्ड(गांव) से है, बताते थे!
ई-स्टोरी ये है की, जैसे-तैसे हिंदिनी के पिछवाडे फ़िलहाल एक छप्पर अपने लिए भी तान दिये हैं, तो अब वहीं मिलेंगे! रस्ता है इधर से.